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संसाररूपी कारागार से मुक्त होने के लिए अकषाय संवर की साधना अनिवार्य है। कषाय आत्मा का स्वभाव नहीं विभाव है। उससे आत्मगुणों की क्षति होती है। अत: सम्यक्दृष्टि पूर्वक कषायों का निरोध करने से कषाय छूट सकते हैं। अकषाय संवर होता है
और कषायजनित कर्मों की निर्जरा होती है। . सांसारिक जीवों की प्रत्येक प्रवृत्ति, मन, वचन, काया के संयोग से होती है। इस प्रवृत्ति को जैन दर्शन में योग कहा है। जिन पाप क्रियाओं से आत्मा बाँधी जाती है उन पाप क्रियाओं को आस्त्रव या कर्मबंधका द्वार कहते हैं। संयममार्ग पर प्रवृत्त होकर इन्द्रिय, कषाय और संज्ञा का निग्रह करने पर ही आत्मा में पाप बंध नहीं होता है इसे ही संवर कहते हैं, यही आस्रव और संवर में अंतर है।
आगे इस प्रकरण में कर्मों का निर्जरण निर्जरा है, निर्जरा का अर्थ, निर्जरा के दो प्रकार, निर्जरा के बारह भेद, तप का महत्त्व, बंध का स्वरूप, बंध के दो भेद- द्रव्य बंध और भावबंध आदि विषयों का निरूपण किया गया है।
कर्मों से मुक्त करने वाला तत्त्व निर्जरा है। निर्जरा का अर्थ पूर्वकृत कर्मों का झड जाना। मोक्षलक्षी बनकर किये जाने वाले तप से निर्जरा होती है। कर्मों का आंशिक रूप से क्षय होना और आत्मा का आंशिक रूप से विशुद्ध होना निर्जरा है। निर्जरा के दो भेद- १) सविपाकी, और २) अविपाकी।
___ कर्मों का अपनी काल मर्यादा के परिपक्व होने पर अपना फल देकर नष्ट हो जाना सविपाकी निर्जरा है, जब कि पूर्वबद्ध कर्मों को उनकी काल मर्यादा के पूर्ण होने के पूर्व ही उदय में लाकर समाप्त कर देना अविपाक निर्जरा है। छः बाह्य, छ: आभ्यंतर भेद से कुल मिलाकर निर्जरा के बारह भेद हैं।
बाह्य और आभ्यंतर तप का लक्ष्य आत्मशुद्धि और समाधि है। बाह्य तप आभ्यंतर तप का प्रवेश द्वार है। दोनों प्रकार के तप एक दूसरे के पूरक हैं। साधक को सकाम निर्जरा या अविपाक निर्जरा के लिए इन बारह प्रकार के तपों की साधना करनी चाहिए। इनके द्वारा कर्मों की अनायास निर्जरा और महानिर्जरा होती है।
तप यह चिंतामणि रत्न के समान है, कर्मरूपी शत्रु को नष्ट करने का अमोघ साधन है। वह संसाररूपी समुद्र को पार कराता है। वह आध्यात्मिक साधना का प्राण है। आत्म प्रदेश में कर्मपुद्गलों का और जीव का अग्नि और लोहपिंड के समान संबंध है, वही बंध है। जब