Book Title: Jain Darm Me Karmsiddhant Ek Anushilan
Author(s): Bhaktisheelashreeji
Publisher: Sanskrit Prakrit Bhasha Bhasha Vibhag

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Page 398
________________ 381 तक आस्रव द्वार खुला रहता है तब तक बंध होता ही रहेगा। जहाँ आस्रव है वहाँ बंध है । जिससे कर्म बांधा जाता है वह बंध है । जो बंधनरूप है वह बंध है । मोक्ष में जाने का बाधक कारण है, वह बंध है। बंध यह आस्रव और निर्जरा के बीच की स्थिति है। । आस्रव के द्वारा कर्मपुद्गल आत्मप्रदेशों में आते हैं। निर्जरा द्वारा कर्मपुद्गल .आत्मप्रदेशों से बाहर निकलते हैं। कर्मपरमाणुओं का आत्म प्रदेशों में आना अर्थात् आस्रव और उनका अलग होना अर्थात् निर्जरा तथा उन दोनों के बीच की स्थिति को बंध कहते हैं। बंध के दो भेद हैं- द्रव्यबंध और भावबंध । कर्म पुद्गल का आत्मप्रदेशों के साथ जो संबंध बनता है उसे द्रव्यबंध कहते हैं, और भावबंध वह है जो राग, द्वेष, मोह आदि विकार भावों से कर्म का बंध होना । भाव बंध में बेडी का बाह्यबंध द्रव्यबंध और रागद्वेष आदि विभावों का बंधन भावबंध है । आगे इस प्रकरण में कर्मों से सर्वथा मुक्ति कैसे की जाये, कर्मों का स्वरूप क्या है, मोक्ष प्राप्ति का उपाय, मोक्ष के लक्षण, मोक्ष का विवेचन, विभिन्न दर्शनों में मोक्ष, जैनदर्शन में मोक्ष, द्रव्यमोक्ष और भाव मोक्ष, कर्मक्षय का क्रम, मोक्ष समीक्षा, कर्मक्षय का फलमोक्ष, मोक्ष प्राप्ति का सोपान, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र आदि का विश्लेषण है । कर्मों का क्षय करने के लिए मोक्ष का स्वरूप जानना अत्यंत आवश्यक है । प्राणीमात्र का अंतिम लक्ष्य मोक्ष है। जैनधर्म में मोक्ष प्राप्ति के मुख्य दो कारण माने गये हैं- संवर और निर्जरा । संवर से आस्रव कर्म का आगमन रुक जाता है अर्थात् नये कर्मों का आगमन नहीं होता और निर्जरा से पूर्वबद्ध कर्म नष्ट हो जाते हैं । इस प्रकार कर्म बंधन से मुक्त हो जाना यही मोक्ष है । जीव मात्र का चरम और परम लक्ष्य मोक्ष प्राप्त करना है। मोक्ष में आत्मा की वैभाविक दशा समाप्त हो जाती है। आत्मा एकबार कर्ममुक्त होने पर फिर से कर्मयुक्त नहीं होती । मोक्षप्राप्ति के चार उपाय आगमों में बताये गये हैं- ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप । रागद्वेष और मिथ्यादर्शन पर विजय प्राप्त करके रत्नत्रय की आराधना करता है, तथा अष्टकर्मों को क्षय करने की प्रक्रिया प्रारंभ करता है । सर्वप्रथम ज्ञानावरणीय कर्म, दर्शनावरणीय कर्म, मोहनीय कर्म और अंतरायकर्म ये चार घाती कर्मों को क्षय किया जाता है। इन चारों में भी मुख्य कर्म मोहनीय कर्म संपूर्ण रूप से नष्ट होता है, तब ज्ञानावरणीयादि तीनों कर्मक्षय होते हैं। तत्पश्चात् वेदनीयकर्म, आयुष्यकर्म, नामकर्म और गोत्रकर्म ये चार अघाती कर्म शेष रहते हैं। इसके बाद आयुष्यकर्म जब अन्तर्मुर्हत (४८

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