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कर्म की गति को बडे-बडे ऋषि, मुनि, महात्मा और अवतारी पुरुष भी भलीभाँति जान नहीं सके। संसार में जितने भी दुःख, क्लेश एवं कष्ट दिखाई देते हैं, जो भी अशांत एवं विक्षुब्ध वातावरण दिखाई देता है, उन सभी के पीछे कर्म की गहन शक्ति और गति काम कर रही है। संक्षेप में कहें जो संसार में सभी छोटे-बडे जीव कर्म के प्रकोप से त्रस्त हैं, दुःखी हैं। कर्मशक्ति की विलक्षणता व्यक्त करते हुए एक कवि ने कहा है
सीता को हरण भयो, लंका को जरण भयो, रावण मरण भयो, सती के सराप तें ।
पांडव अरण्य भयो, द्रुपद सुता के साथ, सत्यभामा को डरन भयो, नारद मिलाप ते ॥
राम वनवास गयो, सीता अविसास भयो । द्वारिका विनाश भयो, योगी के दुराप तें ॥ बडे-बडे राजा केते, संकट सहे अनेक ।
सोहन बखाना, एक कर्म के प्रताप तें ॥
कर्मशक्ति का प्रकोप का परिणाम है। वस्तुतः कर्मशक्ति का प्रकोप बडा भयंकर है । ७१
राजवार्तिक में कर्मशक्ति का परिचय देते हुए कहा गया है- 'सुख - दुःख की उत्पत्ति में कर्म बलवान है। चक्षुदर्शनावरण और वीर्यान्तराय के क्षयोपशम से तथा अंगोपांग नामकर्म के बल से चक्षुदर्शन की शक्ति उत्पन्न होती है । ७२ भगवती आराधना बताया गया है कि, असातावेदनीय का उदय हो तो औषधियाँ भी सामर्थ्यहीन हो जाती हैं । ७३ सर्वार्थसिद्धि में भी समाधान देते हुए कहा है- प्रबल श्रुतावरण के उदय से श्रुतज्ञान का अभाव है।७४ समयसार में भी इसका समर्थन देते हुए कहा है- 'सम्यकदर्शन, सम्यक्ज्ञान और सम्यक् चारित्र के प्रतिबंधक क्रमशः मिथ्यात्व, अज्ञान एवं कषाय नामक कर्म हैं । ७५ कर्म और आत्मा दोनों में प्रबल शक्तिमान कौन ?
प्रश्न होता है- कर्म में जिस प्रकार अनंतशक्ति है, उसी प्रकार आत्मा में भी अनंत शक्ति है। दोनों समान शक्तिवाले हैं फिर क्या कारण है कि, कर्म आत्मा की शक्ति को दबा देता है, आत्मा के स्वभाव और गुणों पर हावी हो जाता है? क्या आत्मशक्ति कर्मशक्ति से टक्कर नहीं ले सकती ? इसका समाधान देते हुए कहा है कि निश्चय दृष्टि से आत्मा में अनंत शक्ति है । ७६ वे शक्तियाँ दो प्रकार की हैं- १) लब्धिवीर्य (योग्यतात्मक) और २ ) करणवीर्य ( क्रियात्मक शक्ति) । वर्तमान में संसारी आत्मा में योग्यतात्मक शक्ति तो है, लेकिन क्रियात्मक शक्ति उतनी प्रगट नहीं हो सकी इसलिए व्यवहार नय से देखें तो वर्तमान में