Book Title: Jain Darm Me Karmsiddhant Ek Anushilan
Author(s): Bhaktisheelashreeji
Publisher: Sanskrit Prakrit Bhasha Bhasha Vibhag

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Page 352
________________ 336 आये तो व्यवहार में पागलपन और यदि शरीर तथा हृदय निष्ठापूर्वक काम नहीं करेंगे तो भावनाएँ विकृत होगी, पुन: यदि व्यक्ति स्वार्थी और क्रूर बना, तो बुद्धि और शरीर भी अपना कार्य व्यवस्थित रूप से नहीं कर सकेंगे। इसी प्रकार दर्शनज्ञान और चारित्र इन तीनों का साधनामय जीवन में व्यवस्थित रूप से होना अत्यंत जरूरी है। यदि एक का अभाव होगा तो साधनापूर्ण नहीं होगी। साधनामय जीवन में अगर केवल चारित्र ही होगा और ज्ञान दर्शन नहीं होगा तो मुक्ति प्राप्त नहीं हो सकेगी। अंधा और लंगडा दोनों मनुष्य एक दूसरे के सहकार से योग्य जगह पहुँच सकेंगे। इसी प्रकार ज्ञान, दर्शन और चारित्र इन तीनों के संयोग से ही मोक्ष मिल सकता है। अकेला ज्ञान लंगडा है, वह चलने में असमर्थ है। अकेला चारित्र अंधा है, उसे रास्ता नहीं दिखाई देता। अकेला दर्शन भी व्यर्थ है। मोक्ष प्राप्ति में तीनों का संयोग नितांत आवश्यक है।२७७ सम्यग्दर्शन के बिना ज्ञान भी सम्यग्ज्ञान नहीं हो सकता। वह अज्ञान ही रहता है। ज्ञान के बिना चारित्र जीवन में सम्यक्प से नहीं आ सकता। चारित्ररहित को कर्मबंधन से मुक्ति नहीं मिलती और मुक्त हुए बिना निर्वाण प्राप्त नहीं हो सकता। ज्ञान के द्वारा हेय, ज्ञेय और उपादेय का बोध होता है। दर्शन से श्रद्धा होती है और चारित्र से तत्त्व जीवन में आते हैं। . संसार के त्रिविध तापों से मुक्त होने के लिए सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र ये तीनों अत्यंत आवश्यक हैं। इन तीनों के संयोग से ही मोक्षमार्ग प्राप्त होता है। मोक्ष प्राप्ति का प्रथम सोपान सम्यक्त्व सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र इन तीनों को जानने से पहले 'सम्यक्त्व' का अर्थ जानना अत्यंत आवश्यक है। जिस प्रकार कमलों से झील, चंद्रमा से रात, कोयल से वसंत ऋतु शोभायमान होती है, उसी प्रकार धर्म का आचरण सम्यक्त्व से सुशोभित होता है। सम्यक्त्व को सम्यग्दर्शन भी कहते हैं। उसका अर्थ है सच्ची श्रद्धा, यानि विवेकपूर्वक श्रद्धा, कर्तव्य-अकर्तव्य अथवा हेय, उपादेय पर विवेकपूर्वक साधना के मार्ग में दृढ विश्वास रखना। श्रद्धा प्रगट होने पर ज्ञान सम्यग्ज्ञान बन जाता है। सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान इन दोनों की सहायता से सम्यक्चारित्र का विकास होता है, जिससे मोक्ष प्राप्त होता है। देव के प्रति देवबुद्धि, गुरु के प्रति गुरुबुद्धि और धर्म के प्रति धर्मबुद्धि शुद्ध प्रकार से होने पर वह सम्यक्त्व होता है। २७८ संसार में सम्यक्त्वरूपी रत्न से अधिक मूल्यवान दूसरा रत्न नहीं है। सम्यक्त्वरूपी बंधू से दूसरा बंधू नहीं। सम्यक्त्व का लाभ ही सबसे बडा लाभ

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