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वेदांत और सांख्य दर्शन भी मोक्ष के लिए सम्यग्ज्ञान को ही आवश्यक मानते हैं। उनके मतानुसार बंधन का एकमात्र कारण मिथ्याज्ञान है। जैनाचार्य श्री विद्यानंदीजी के मतानुसार सम्यग्ज्ञान से ही मोक्ष प्राप्त हो सकता है। सम्यग्दर्शन से रहित ज्ञान अज्ञान या मिथ्याज्ञान होता है और सम्यग्दर्शन सहित ज्ञान सम्यग्ज्ञान होता है।२९८ सम्यक्चारित्र
सम्यक्चारित्र यह मोक्ष मार्ग की तीसरी सीढी है। सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान के समान ही सम्यक्चारित्र भी महत्त्वपूर्ण है। आत्मस्वरूप में रमण करना और जिनेश्वर देव के वचनों पर पूर्ण श्रद्धा रखना और उसी प्रकार आचरण करना, यही सम्यक्चारित्र है।
जिस प्रकार सम्यक्दर्शन और सम्यक्ज्ञान मोक्ष के साधन हैं, उसी प्रकार सम्यक्चारित्र भी मोक्ष का साधन है। चारित्र याने स्व-स्वरूप में स्थित होना। शुभाशुभ भावों से निवृत्त होकर स्वयं के शुद्ध चैतन्य स्वरूप में स्थिर रहना, यही सम्यक्चारित्र है। ऐसा चारित्र ज्ञानी को ही होता है, अज्ञानी को नहीं होता। यदि दुःख से मुक्ति चाहिए तो सम्यक्चारित्र को स्वीकार करना चाहिए।
मोक्ष का अंतिम कारण सम्यकचारित्र ही है। चारित्र गुण का पूर्ण विकास मुनि पद में होता है। इसलिए मुनि पद धारण करना चाहिए।२९९ ज्ञान यह नेत्र है और चारित्र यह चरण है। रास्ता देख तो लिया, परंतु पैर अगर उस रास्ते पर नहीं चले, तो इच्छित ध्येय की प्राप्ति असंभव है। चारित्र के बिना ज्ञान काँच की आँख के समान केवल दिखाने के लिए है। सचमुच वह आँख पूर्णतया निरुपयोगी होती है। ज्ञान का फल विरक्ति है।
ज्ञानस्य फलं विरतिए। ज्ञान प्राप्त होने पर भी अगर विषयों में आसक्ति होगी तो वह वास्तविक ज्ञान नहीं है।३००
सम्यक्चारित्र यह जैन साधना का प्राण है। विभाव में गए हुए आत्मा को पुन: शुद्ध स्वरूप में अधिष्ठित करने के लिए सत्य के परिज्ञान के साथ जागरूक भाव से सक्रिय रहना ही सम्यक् आचार की आराधना है, और यही सम्यक्चारित्र है। चारित्र एक ऐसा हीरा है कि जो किसी भी पत्थर को तराश सकता है। उत्तम व्यक्ति मितभाषी होते हैं और आचरण में दृढ होते हैं। बौद्ध साहित्य में सम्यक्चारित्र को ही सम्यक् व्यायाम कहा है।३०१
तत्त्व के स्वरूप को जानकर पापकर्म से दूर होना, अपनी आत्मा को निर्मल बनाना, यही सम्यक्चारित्र का असली अर्थ है । ३०२ जिस प्रकार अंधे मनुष्य के सामने लाखों, करोडों