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प्रकाश भी बढ़ जाता है। आत्मा की कभी भी ऐसी अवस्था नहीं होती उसमें किश्चित भी ज्ञान न हो।२९० . जिस प्रकार धागेवाली सुई कहीं भी गिरने पर गुम नहीं होती, उसी प्रकार शास्त्रज्ञान युक्त जीव संसार में परिभ्रमण नहीं करता।२९१ जिससे तत्त्व का ज्ञान होता है, चित्त का निरोध होता है, साथ ही आत्मा विशुद्ध बनता है, उसे ही जिनशासन में 'ज्ञान' कहा है। २९२
जिससे जीव राग-द्वेष से विमुख होता है, श्रेय में अनुरक्त होता है, जिससे मैत्रीभाव से भावित होता है, उसे ही जिनशासन में 'ज्ञान' कहते हैं।२९३ आत्मा क्या है? कर्म क्या है? बंधन क्या है? कर्म आत्मा के साथ बद्ध क्यों होते है? आदि विषयों का यथार्थ परिज्ञान ही सम्यग्ज्ञान है और अथयार्थज्ञान मिथ्याज्ञान है।
ज्ञान यह तीसरी आँख के समान है। उसके अभाव में भक्त भगवान नहीं बन सकता, जीव शिव नहीं बन सकता, आत्मा भवबंधन से मुक्त नहीं हो सकता। आत्मा परमात्मा नहीं बन सकती, नर नारायण नहीं बन सकता। सुप्रसिद्ध लेखक शेक्सपियर ने कहा है कि ज्ञान के पंखों द्वारा हम स्वर्ग तक उड सकेंगें। क्फयशियस ने ज्ञान को आनंद प्रदाता कहा है। इससे यह स्पष्ट होता है कि सम्यग्ज्ञान ही सच्चे सुख का कारण है। जब तक सम्यग्ज्ञान प्राप्त नहीं होता तब तक विकारों का विनाश नहीं होता और विचारों का विकास भी नहीं हो सकता।२९४
___ संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय इन तीन दोषों से रहित तथा नय और प्रमाण से होने वाले जीवादि पदार्थ का यथार्थ ज्ञान ही 'सम्यग्ज्ञान' है। संक्षेप में या विस्तार से तत्त्व के यथार्थ स्वरूप को जानना, इसे ही विद्वान लोग सम्यग्ज्ञान कहते हैं।२९५
वैदिक दार्शनिकों ने भी सम्यग्ज्ञान को महत्त्व दिया है और उसे ब्रह्मविद्या कहा है। आध्यात्मविद्या में ही सब विद्याओं की प्रतिष्ठा है, वह सब में प्रमुख है।२९६ सभी विद्याओं को दीपक के समान प्रकाश देने वाली है और परिपूर्णता प्राप्त करानेवाली है। वही सबसे उत्कृष्ट धर्म है इस आत्मविद्या के द्वारा राग-द्वेष नष्ट होते हैं और यही सर्वोत्तम राजविद्या है।
न्यायदर्शन, मिथ्याज्ञान और मोह आदि को संसार का मूल कारण मानता है। सांख्यदर्शन विपर्यय को संसार का मूल कारण मानता है। बौद्ध दर्शन, राग-द्वेषजन्य अविद्या को संसार का मूल कारण मानता है। जैन तत्त्वज्ञान की दृष्टि से साधना के क्षेत्र में सम्यग्ज्ञान का महत्त्व सम्यग्दर्शन जितना ही है, इसलिए ज्ञान सर्व प्रकाशक है, ऐसा कहा जाता है। प्रथम ज्ञान और उसके बाद में चारित्र का क्रम है। ऐसा जैन शास्त्र में माना गया है। जैन शास्त्रों में दया को अतीव महत्त्व है। फिर भी ज्ञान को प्रथम स्थान दिया है। दशवैकालिक सूत्र में कहा है- पढमं नाणं तओ दया। प्रथम ज्ञान और बाद में दया।२९७