Book Title: Jain Darm Me Karmsiddhant Ek Anushilan
Author(s): Bhaktisheelashreeji
Publisher: Sanskrit Prakrit Bhasha Bhasha Vibhag

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Page 385
________________ 368 पाँच कारणों की समीक्षा संसार के प्रत्येक कार्य उपरोक्त पाँचों कारणों के मेल से होता है। यह उदाहरणों से सिद्ध करके बताया है तथा अंत में निष्कर्ष के रूप में कर्म और पुरुषार्थ इन दोनों को पुरुषार्थ के रूप में बताया है। वर्तमान में किया जाने वाला उद्यम पुरुषार्थ है तथा भूतकाल में किया पूर्वकृत पुरुषार्थ कर्म है। पाँच कारणों में से प्रथम तीन कारण काल, स्वभाव और नियति यह जड से संबंधित हैं, और अंतिम दो कारण कर्म और पुरुषार्थ ये चेतन से संबंधित हैं, इसलिए पुरुषार्थवाद को ही कर्मक्षय में मुख्य कारण मानकर संवर, निर्जरा एवं मोक्ष की ओर गति-प्रगति करने की प्रेरणा कर्मसिद्धांत देता है, क्योंकि चेतना का स्व-पुरुषार्थ ही पाँचों कारणों में उत्तरदायी है। 'कर्म' शब्द के विभिन्न अर्थ और रूप जीवन के सभी क्षेत्रों में कर्मों का सार्वभौम साम्राज्य है, कर्म और उसके फल पर विश्वास रखना चाहिए। व्यवहार में कर्म शब्द का प्रयोग विभिन्न अर्थों में होता है। समस्त शारीरिक, मानसिक, वाचिक क्रियाओं को कर्म कहा जाता है। किसी स्पंदन, हलचल या क्रिया के लिए कर्म शब्द का उपयोग किया जाता है। ... वैय्याकरणों ने कर्मकारक अर्थ में कर्म शब्द का प्रयोग किया है, वैदिक परंपरा में यज्ञ-याग को 'कर्म' कहा है। चारों वर्षों में निश्चित कर्तव्यों को एवं मर्यादा पालन करने को कर्म कहा है, पौराणिक मत के अनुसार धार्मिक क्रियाको कर्म कहते हैं, गीता में आकांक्षा रहित अनासक्त भाव से किया गया कार्य 'कर्म' कहा गया है। बौद्ध दार्शनिकों ने शारीरिक, वाचिक और मानसिक इन तीनों प्रकार की क्रिया के अर्थ में 'कर्म' शब्द का प्रयोग किया है। जैन दर्शन के अनुसार जीवात्मा के द्वारा मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय एवं योग आदि हेतुओं (कारणों) से जो क्रिया की जाती है, वह कर्म है। कर्म के दो रूप- द्रव्य और भावकर्म। द्रव्यकर्म और भावकर्म की प्रक्रिया, कर्म संस्काररूप भी और पुद्गलरूप भी, आत्मा की वैभाविक क्रिया कर्म, प्रमाद ही संस्कार रूप कर्म (आस्रव) का कारण, कार्मण शरीर कार्य भी है और कारण भी है, जीव पुद्गल कर्म चक्र आदि विषयों का विस्तृत निरूपण इस प्रकरण में किया है। जैन दर्शन में कर्म के समस्त स्वरूप को सर्वागीण रूप से समझने के लिए कर्म के भावात्मक और द्रव्यात्मक दोनों पक्षों पर विशदरूप से विचार किया है। ज्ञानावरणीय पुद्गल द्रव्य का पिंड 'द्रव्यकर्म' है और उसकी चेतना को प्रभावित करने वाली शक्ति अथवा उस पिंड में फल देने की शक्ति 'भावकर्म' है। 'द्रव्यकर्म' में पुद्गल की मुख्यता और आत्मिक

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