Book Title: Jain Darm Me Karmsiddhant Ek Anushilan
Author(s): Bhaktisheelashreeji
Publisher: Sanskrit Prakrit Bhasha Bhasha Vibhag

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Page 384
________________ 367 शुद्ध धर्म का प्रशिक्षण एवं उपदेश दिया। उन्होंने बताया कि आत्मा के साथ कर्म प्रतिक्षण बंधता है। वैसे ही धर्म पुरुषार्थ से कर्म छूट भी सकते हैं। भगवान ऋषभदेव से कर्मवाद का आविर्भाव भी हुआ, उन्होंने आत्मा के साथ लगे हुए कर्मों का निरोध, क्षय करने हेतु अगार धर्म से अणगार धर्म अंगीकार किया। आम जनता को भी अपने जीवन द्वारा इन दोनों धर्मों का उपदेश दिया। दोनों धर्मों का लक्ष्य एक ही था। सर्व कर्म से मुक्ति पाना, इसलिए कर्मवाद के प्रथम उपदेशक, आविष्कार करनेवाले एवं प्रेरक भगवान ऋषभदेव कहे जाते हैं। भगवान महावीर द्वारा कर्म का आविर्भाव, जैनदृष्टि से कर्मवाद का समुत्थानकाल, कर्मवाद के समुत्थान का मूलस्रोत, कर्मवाद का विकासक्रम, विश्व वैचित्र्य के पाँच कारण, कालवाद, स्वभाववाद, नियतिवाद, कर्मवाद और पुरुषार्थवाद, मोक्ष प्राप्ति में पंचकारण समवाय, सर्वत्र पाँच कारण से कार्यसिद्धि आदि विषयों पर विवेचन इस प्रकरण में किया गया है। ___अवसर्पिणी काल के कालक्रम में हुए चौबीस तीर्थंकरों ने अपने अपने युग में कर्मसिद्धांत की अनुभूति के आधार पर प्रचार प्रसार किया। एक तीर्थंकर के पश्चात् दूसरे तीर्थंकर होने पर लाखों वर्ष निकल जाते हैं। इतने लंबे काल में जनता की तत्त्वज्ञान की स्मृति, धारणा परंपरा धूमिल हो जाती है, इस कारण बीच-बीच में कर्मवाद का तिरोभाव हो जाता है। ____ कर्मवाद का समुत्थान कब से और किनके द्वारा हुआ? तो जैन विज्ञान विशारदों ने एक मत से यह निर्धारित किया कि वर्तमान में जितना भी तत्त्वज्ञान है तथा जो भी आगम या द्वादशांग शास्त्र हैं, वे सभी भगवान महावीर के उपदेश की संपत्ति हैं। भगवान महावीर ने अपने जीवन के अनुभवों से कर्म सिद्धांत का प्रचार प्रसार किया, इसलिए कर्मवाद के आद्य समुत्थान का श्रेय भगवान महावीर को है और इसे ही समुत्थानकाल समझना चाहिए। कर्मविज्ञान के तत्त्वज्ञों ने कर्म सिद्धांत के प्रत्येक पहलुओं पर सांगोपांग चिंतन, मनन एवं विश्लेषण किया है। जैन कर्ममर्मज्ञों ने कर्मवाद की व्यापकता की ओर सर्वाधिक ध्यान दिया है। कर्मवाद के संबंध में अनेक ग्रंथों की रचना हई। जिनकी व्याख्या जीवन के सभी क्षेत्रों को स्पर्श करती है। जैन कर्म सिद्धांत वैज्ञानिकों ने विश्ववैचित्र्य की व्याख्या कर्मवाद के आधार पर की। साथ ही उन्होंने प्रत्येक कार्य में निम्नोक्त पाँच कारणों पर विचार करना अनिवार्य बताया। १) काल, २) स्वभाव, ३) नियति, ४) कर्म, ५) पुरुषार्थ। जैन कर्म वैज्ञानिकों ने प्रत्येक प्रवृत्ति, कार्य या घटना ये पाँच कारणों की मुख्यता या गौणता के आधार पर माना है।

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