Book Title: Jain Darm Me Karmsiddhant Ek Anushilan
Author(s): Bhaktisheelashreeji
Publisher: Sanskrit Prakrit Bhasha Bhasha Vibhag

Previous | Next

Page 383
________________ 366 कर्मक्षय की प्रक्रिया जैन धर्म की प्राणप्रतिष्ठा है, जिससे सिद्ध परमात्मा सर्वोच्च शिखरसिद्धालय पर सुशोभित हैं। साधक से साधना मार्ग शुरु होता है। वह धर्म के द्वारा कर्म के भार से मुक्त होता है तथा कर्मक्षय करने की कला आत्मसात कर लेता है। जैन धर्म में साधक को कर्मसिद्धांत समझना यह मूल पाया है, यही कारण है कि इस शोध प्रबंध में जैनधर्म में कर्मसिद्धांत का उल्लेख किया गया है। तृतीयप्रकरण - कर्मवाद का ऐतिहासिक पर्यालोचन भारतवर्ष में जितने भी तीर्थंकर, सर्वज्ञ, केवलज्ञानी, ऋषिमुनि, साधुसंत, श्रमणोपासक, साधक हुए हैं, उन सभी ने अपने-अपने ढंग से अध्यात्म साधना करते समय आत्मा के साथ जन्मजन्मांतर से बद्ध कर्म को आत्मा से पृथक् करने का पुरुषार्थ किया है। उन आध्यात्मिक शक्तियों ने ज्ञान, दर्शन, चारित्र तथा रूप महाव्रतों की साधना करते समय राग-द्वेष मोह हिंसादि अशुद्ध साधना, मिथ्यादृष्टि आदि दूषित बातें न अपनाने का ध्यान रखा। आत्मगुणों के विघातक अष्ट कर्मों का क्षय करके वे स्वयं वीतराग. सर्वज्ञ. जीवनमक्त परमात्मा बनें और उन्होंने भव्य जीवों को कर्म से मुक्त होने का अनुभव ज्ञानरूप प्रसाद वितरित किया। तृतीय प्रकरण में कर्मवाद का ऐतिहासिक पर्यालोचन इसका विशेष विश्लेषण किया गया है। उसका संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है- कर्मप्रवाह तोडे बिना परमात्मा नहीं बनते, कर्मवाद का आविर्भाव का कारण, भगवान ऋषभदेव के द्वारा कालानुसार जीवन जीने की प्रेरणा, कर्ममुक्ति के लिए धर्मप्रधान समाज का निर्माण, भगवान ऋषभदेव के द्वारा धर्म, कर्म, संस्कृति आदि का श्रीगणेश, भगवान ऋषभदेव द्वारा कर्मवाद का प्रथम उपदेश, कर्मवाद का आविर्भाव क्यों और कब? तीर्थंकरों द्वारा अपने युग में कर्मवाद का आविर्भाव आदि विषयों का विश्लेषण इस प्रकरण में किया गया है। कर्मवाद का आविर्भाव जैन कर्मविज्ञान मर्मज्ञों के समक्ष यह प्रश्न आया कि जैन दृष्टि से कर्मसिद्धांत का आविर्भाव कब से हआ? तो उन्होंने आदि तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव के जीवन पर आद्योपांत दृष्टिपात किया है। तीर्थंकर परंपरा से पूर्व भोगभूमि का वातावरण था, जिसमें प्राणी को आजीविका के लिए कुछ भी नहीं करना पडता था। कल्पवृक्ष द्वारा सारी जीवनोपयोगिता पूर्ण होती थी। पूर्वोपार्जित कर्मों का भोग जीव करता था। प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव के जन्म से इस परंपरा में परिवर्तन होने लगा। फलस्वरूप आजीविका के लिए प्राणी को कर्म करने की अपेक्षा हुई। तीर्थंकर ऋषभदेव ने कर्मभूमि का प्रर्वतन किया। असि-मसि-कृषि आदि ललित-कलाओं का सूत्रपात आम जनता के सामने किया। इन कर्मों को धर्म मर्यादा में करते हुए कर्म का निरोध करने के साथ पूर्वबद्ध कर्मों का क्षय करने के लिए सम्यग्दृष्टिपूर्वक

Loading...

Page Navigation
1 ... 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422