Book Title: Jain Darm Me Karmsiddhant Ek Anushilan
Author(s): Bhaktisheelashreeji
Publisher: Sanskrit Prakrit Bhasha Bhasha Vibhag

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Page 382
________________ 365 चार्वाक तो आत्मा को ही नहीं मानते, वे तो उसी जन्म में पंचभूतों से उत्पन्न चैतन्य शरीर के नष्ट होने के साथ ही नष्ट होना मानते हैं। चार्वाक दर्शन का कहना है कि __ ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत भस्मि भूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः॥ नास्तिक मतों का निराकरण कर्म सिद्धांत ने प्रतिपादित किया है कि आत्मा सचेतन होते हुए भी अचेतन (पौद्गलिक) कर्म के साथ उसकी यात्रा, प्रवाहरूप से अनादि अनंत है, किंतु व्यक्तिगत रूप से अनादि सांत भी है, जैसे प्रति समय कर्म बाँधते हैं वैसे कर्मों का क्षय, क्षयोपशम या उपशम भी संवर और निर्जरा के कारण होता रहता है। आत्मा के साथ कर्मों के संयोग के कारण वह विभिन्न गतियों और योनियों में तब तक परिभ्रमण करता रहता है जब तक वह सर्व कर्मों से मुक्त नहीं हो जाता है। इस दृष्टि से कर्म के कारण जीव का एक जन्म के शरीर का अंत होकर दूसरे जन्म में जाना पुनर्जन्म है। कर्मविज्ञान ने इस परिणामी नित्यत्व के कारण कर्ममुक्त आत्मा का पूर्वजन्म और पुनर्जन्म सर्वज्ञों द्वारा प्रत्यक्ष प्रमाण से सिद्ध किया है। आगम प्रमाण से एवं वर्तमान युग में परामनोवैज्ञानिकों एवं जैव वैज्ञानिकों के द्वारा जैन, बौद्ध, वैष्णव आदि विभिन्न धर्म संप्रदायों ने जातिस्मरण (पूर्वजन्म की स्मृति) ज्ञान से प्रामाणिक करके प्रत्यक्ष सिद्ध किया है। अत: पूर्वजन्म और पुनर्जन्म की विभिन्न सच्ची घटनाएँ तथा पूर्वजन्म के मानवों द्वारा प्रेतयोनि में जन्म लेकर मानवों को अपना अस्तित्व को कर्म-विज्ञान ने सिद्ध करके दिखाया है। इस प्रकरण में अनेक प्रकार से विवेचन किया है। . कर्म अस्तित्व कब से कब तक? तात्त्विक दृष्टि से कर्म और जीव का सादि और अनादि संबंध, आत्मा अनादि है तो क्या कर्म भी अनादि है? भव्य जीव और अभव्यजीव के लक्षण आदि विषयों का निरूपण किया है। जिस प्रकार स्वर्ण और मिट्टी का, दूध और घी का संबंध अनादि मानने पर भी मनुष्य के प्रयत्न विशेष द्वारा इन्हें पृथक्-पृथक् किया जाता है, वैसे ही आत्मा और कर्म का संबंध प्रवाहरूप से अनादि होते हुए भी दोनों को महाव्रत, समिति-गुप्ति, दशविध-धर्म, अनुप्रेक्षा, परिषहजय, चारित्राराधना, बाह्याभ्यंतर तप आदि से पृथक्-पृथक् किया जाता है। अत: आत्मा और कर्म का अभव्य जीवों की अपेक्षा से अनादि अनंत, भव्यजीव की अपेक्षा से प्रवाहत: अनादिसान्त और एक भव्य साधक के विशेष कर्म की अपेक्षा से सादिसांत है, यह भी कर्म सिद्धांत ने सिद्ध कर दिया है कि प्रवाह रूप से अनंत जीवों की अपेक्षा से संसार अनादि अनंत है; किंतु एक व्यक्ति की अपेक्षा से जन्ममरण, कर्म आदि का अंत होने से वह अनादि सांत भी है। जब तक कर्म है तब तक संसार है, जब कर्म का सर्वथा अभाव हो जायेगा, तब संसार का अंत होकर मोक्ष हो जायेगा।

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