Book Title: Jain Darm Me Karmsiddhant Ek Anushilan
Author(s): Bhaktisheelashreeji
Publisher: Sanskrit Prakrit Bhasha Bhasha Vibhag

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Page 380
________________ 363 जिस समाज एवं धर्म का साहित्य जीवित होता है। वह समाज और धर्म कभी मरता नहीं, मिटता नहीं। वह अजरअमर होता है। जैन साहित्य इसी कोटि में आता है। विभिन्न विद्याओं की शैलियों में - पद्यात्मक, गीतात्मक, गद्यात्मक आदि रूपों में दर्शन विषयक सूत्रग्रंथ, महाकाव्य, खंडकाव्य, मुक्तकाव्य, चंपुकाव्य, चरितकाव्य, कथानक, रास इत्यादि अनेक प्रकार की रचनायें हुई। उन सब में लेखकों का, रचनाकारों का मुख्य उद्देश्य यही रहा कि जन-जन को धार्मिक जीवन अपनाने की प्रेरणा प्राप्त हो। लोग आध्यात्मिक उत्थान के पथ पर आगे बढ़ें। संयम, शील, त्याग, वैराग्य, तप, स्वाध्याय, ध्यान आदि की दिशाओं में सदैव प्रगति करते जायें। इस प्रकार निरंतर आगे बढ़ते हुए जन्म-मरण से छूट जाये, मोक्ष-लक्ष्मी या सिद्धावस्था को प्राप्त करें। भारतीय संस्कृति की प्राचीनता, जैनधर्म के (कालचक्र) छह आरा की मान्यता, श्रमण संस्कृति की विशेषता इत्यादि विषयों का वर्णन प्रथम प्रकरण में किया गया है। जैन मान्यतानुसार अनंत चौबीसी हो गई हैं, उनमें से वर्तमान अवसर्पिणी काल के चौबीस तीर्थंकर और भगवान महावीर का विवेचन इस प्रथम प्रकरण में दर्शाया है। भगवान महावीर का उपदेश और श्रुत परंपरा इस विषय पर आलेखन किया हुआ है। जैन धर्मग्रंथ, आगम, आगमसाहित्य की तीन वाचयाएँ उनका विभाजन, वर्गीकरण और बत्तीस आगमों में कर्मसिद्धांत का वर्णन तथा आगमों की विशेषताएँ आदि का प्रथम प्रकरण में वर्णन किया हुआ है। जैन धर्म के मुख्य सिद्धांत और भगवान महावीर की वाणी का आगम ग्रंथों में गणधर भगवंतों ने जो उत्तम प्रकार से संकलन किया है, वह जैनधर्म को समझने के लिए अनिवार्य है। भगवान महावीर का उपदेश आगमों के पन्ने-पन्ने पर ही नहीं, लेकिन शब्द-शब्द में गूंथा हुआ है, इसलिए आगम ग्रंथ का जैन समाज पर महान उपकार है। विश्व के आध्यात्मिक क्षेत्र में भी उसका अद्भुत प्रभाव है। जैनधर्म को संपूर्ण रीति से समझने के लिए आगम ग्रंथों के अभ्यास की नितांत आवश्यकता है, इसलिए प्रस्तुत प्रकरण में श्रमण संस्कृति की विशेषता और आगमों में कर्म-सिद्धांत का संक्षेप में परिचयात्मक विवरण देने का विनम्र प्रयत्न किया है। द्वितीयप्रकरण - कर्म का अस्तित्व जैन दर्शन को समझने की कुंजी है - 'कर्मसिद्धांत' । यह निश्चित है कि समग्रदर्शन एवं तत्त्वज्ञान का आधार है आत्मा और आत्मा की विविध दशाओं, स्वरूपों का विवेचन एवं उसके परिवर्तनों का रहस्य उद्घाटित करता है 'कर्मसिद्धांत' । इसलिए जैन दर्शन को समझने के लिए कर्मसिद्धांत को समझना अनिवार्य है।

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