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तत्त्व की गौणता होती है जबकि भाव कर्म में आत्मिक तत्त्व की मुख्यता और पौद्गलिक तत्त्व की गौणता होती है।
कर्म सांसारिक प्राणियों के जीवन में बँधा हुआ एक नियम है। भगवान महावीर ने कहा है कि जो नियम है, धर्म है; वह ध्रुव है, नित्य है, शाश्वत है, जिनोपदिष्ट है ।' वह नियम इस प्रकार है- जहाँ स्वाभाविक क्रिया नहीं है, वैभाविक क्रिया है वहाँ आत्मा कर्म से बद्ध होती है, इसलिए कर्म केवल संस्कार रूप ही न होकर पुद्गल रूप भी है।
क्रिया प्रतिक्रिया के रूप में नियमानुसार कर्मबद्ध जीव आत्मा के रागादि परिणामजन्य संस्कार के रूप में रहते हैं, फिर आत्मा में स्थित प्राचीन कर्मों के साथ ही नये कर्मबंधन की प्राप्ति होती रहती है। इस प्रकार परंपरा से कदाचित् कर्मबद्ध अमूर्त आत्मा के साथ मूर्त कर्मद्रव्य का संबंध है। संसारी जीव और कर्म के इस अनादि संबंध को जीव पुद्गल कर्मचक्र के नाम से अभिहित किया गया है। इस प्रकार कर्मवाद एक ऐतिहासिक पर्यालोचन का इस तृतीय प्रकरण में विस्तारपूर्वक तुनलात्मक दृष्टि से विवेचन किया है, जिसे सरलतापूर्वक लोग समझ सकें ।
मानव जीवन को उन्नत और तेजस्वी बनाने के लिए धर्म ही श्रेष्ठ है । धर्म से आत्मा का विकास होता है। जिसको धर्म की रुचि होती है, वही अपने बाँधे हुए कर्मों को क्षय करने में - सक्षम होता है और उसके द्वारा ही सिद्धत्व की ओर प्रयाण कर सकता है। कर्मक्षयरूपी पुष्प की माला जो साधक धारण करेगा उसका जीवन वैराग्यरूपी सद्गुणों से सुंगधित होगा और राग-द्वेष कर्मरूपी दुर्गंध दूर होगी तब साधक शीघ्रातिशीघ्र वीतरागता को प्राप्त करके सिद्धबुद्ध - मुक्त होगा।
चतुर्थप्रकरण - कर्म का विराट स्वरूप
पुष्प में जैसे सुंगध, तिल में जैसे तेल, दूध में जैसे मलाई, धातु में जैसे मिट्टी, लोहे के गोले में जैसे अग्नि उसी प्रकार आत्म प्रदेशों में कर्म पुद्गल का समावेश होता है। आत्मा के साथ राग-द्वेषादि के कारण कर्म पुद्गल क्षीर-नीर की तरह एकीभूत हो जाते हैं। कर्म जब तक रहते हैं, तब तक जीव संसार में विविध गतियों और योनियों में विविध प्रकार के शरीर धारण करके परिभ्रमण करते रहते हैं, नाना दुःख उठाते हैं तथा भयंकर से भयंकर यातनाएँ सहन करते हैं, इसलिए साधक को इन कर्मों को आत्मा से पृथक् करना आवश्यक है। तभी हो सकता है जब कर्म के स्वरूप को व्यक्ति जान ले ।
कमल के विकास में सूर्य निमित्त बनता है, कुमुदों के विकास में चंद्र निमित्त बनता है, अंधकार को दूर करने में प्रकाश निमित्त बनता है, आत्मोन्नति के विकास में धर्म निमित्त