Book Title: Jain Darm Me Karmsiddhant Ek Anushilan
Author(s): Bhaktisheelashreeji
Publisher: Sanskrit Prakrit Bhasha Bhasha Vibhag

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Page 391
________________ 374 इस प्रकरण में आगे बताया गया है कि कर्म मूर्त या अमूर्त, आत्मगुणरूप, कर्म को मूर्तरूप न मानने का क्या कारण, मूर्त का लक्षण और उपादान, जैन दार्शनिक ग्रंथों में कर्म की मूर्तत्व सिद्धि, आप्तवचन से कर्म मूर्त रूप सिद्ध होता है आदि विषयों का निरूपण किया गया है। जैन दर्शन कर्म को मूर्त मानता है, क्योंकि उसमें वर्ण, गंध, रस, स्पर्श होने से वह पौद्गलिक है, रूपी है। अमूर्त में वर्णादि चारों गुण नहीं होते। मूर्त, मूर्तही रहता है, वह कदापि अमूर्त नहीं होता, कर्म मूर्त होते हुए भी सूक्ष्म है। वह सामान्य व्यक्ति के चर्मचक्षु अदृश्य है। आत्मा को अमूर्त और कर्मों को मूर्त माना जाता है। कर्म के मूर्त कार्यों को देखकर भी उसका मूर्तत्व सिद्ध होता है। अमूर्त आत्मा कभी मूर्त नहीं होती और न ही मूर्त कर्म अमूर्त आत्मा के रूप में परिणत होता है। दोनों स्वतंत्र हैं, एक दूसरे को जरूर प्रभावित करते हैं और अलग भी हो जाते हैं। कर्मों के रूप कर्म, विकर्म और अकर्म सांपरायिक क्रियाएँ बंधकारक ईर्यापथिक नहीं, क्रिया से कर्म का आगमन अवश्य, अबंधकारक क्रियाएँ रागादि कषाययुक्त होने से बंधकारक होती हैं, साधनात्मक क्रियाएँ अकर्म के बदले कर्मरूप बनती हैं, कर्म का अर्थ केवल प्रवृत्ति नहीं अकर्म का अर्थ केवल निवृत्ति नहीं। भगवान महावीर की दृष्टि से प्रमाद कर्म, अप्रमाद अकर्म कर्म - विकर्म में अंतर आदि विषयों का निरूपण इस प्रकरण में किया है। जैन दर्शन में कर्म, अकर्म और विकर्म की वास्तविक पहचान पर पर्याप्त प्रकाश डाला है। जब तक शरीर है तब तक शरीरधारी को मन, वचन और काया से कोई न कोई कर्मक्रिया या प्रवृत्ति करनी ही पडती है, यदि सभी क्रियाएँ कर्म कहलाने लगें तो कोई भी मनुष्य तो क्या तीर्थंकर केवलज्ञानी, वीतरागी या अप्रमत्त निर्ग्रथ भी कर्म परंपरा से मुक्त नहीं हो - सकते। नये कर्म बंध से बच भी नहीं सकेंगे, फिर तो कर्मरहित अवस्था एक मात्र सिद्ध परमात्मा की ही माननी पडेगी। जैन कर्मसिद्धांतविदों ने कहा है यद्यपि क्रिया से कर्म आते हैं, परंतु वे सभी बंधकारक नहीं होती, जैनागमों में पच्चीस क्रियाएँ बतायी गई हैं, उनमें से २४ क्रियाएँ सांपरायिक हैं याने कषाय रागद्वेष आदि से युक्त होती हैं इसलिए कर्मबंधकारक हैं और पच्चीसवीं ईर्यापथिकी क्रिया है जो विवेकयुक्त = यत्नाचार परायण, अप्रमत्त संयम या वीतरागी की गमनागमनादि या आहार विहारादि चर्या रूप होती है। वह क्रिया कषाय एवं रागादि आसक्तिरहित होने से कर्मबंध कारिणी नहीं होती । बंधक और अबंधक कर्म का आधार बाह्य क्रिया नहीं है, अपितु कर्ता के परिणाम, मनोभाव या विवेक- अविवेक आदि

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