Book Title: Jain Darm Me Karmsiddhant Ek Anushilan
Author(s): Bhaktisheelashreeji
Publisher: Sanskrit Prakrit Bhasha Bhasha Vibhag

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Page 392
________________ 375 हैं। यदि कर्ता के परिणाम रागादियुक्त नहीं हैं, शारीरिक क्रियाएँ भी संयमी जीवन यात्रार्थ अनिवार्य रूप से मद विषयासक्ति, असावधानी, विकथा, अयत्ना, निंदादि प्रमादरहित होकर की जाती है अथवा स्वपर-कल्यणार्थ प्रवृत्ति की जाती है या कर्मक्षयार्थ सम्यग्ज्ञान, दर्शन, चारित्र की साधना अप्रमत्तभाव से की जाती है तो उससे होने वाले कर्म रागद्वेष से रहित होने से बंधकारक नहीं होते। अतएव ऐसे कर्मों को अकर्म समझना चाहिए। भगवान महावीर ने प्रमाद को कर्म कहा है। अप्रमाद को अकर्म कहा है- कर्ता के परिणाम अशुभ होने से संवर और निर्जरावाले स्थान में आस्रव और बंध तथा शुद्ध परिणाम हो तो आस्रव और बंध होने वाले स्थान में संवर और निर्जरा भी होती है, इस प्रकार कर्म सिद्धांत ने 'कर्म' का अर्थ केवल सक्रियता या प्रवृत्ति नहीं, तथैव ‘अकर्म' का अर्थ केवल सक्रियता या प्रवृत्ति नहीं, तथैव अकर्म व अर्थ केवल निष्क्रियता या निवृत्ति नहीं है। जो कर्मरागादि से प्रेरित होकर किया जाता है वह सांपरायिक क्रियाजनित कर्म है इसके सिवा जो रागादिरहित होकर मात्र कर्तव्य रूप से किया जाये वह ईर्यापथिक क्रियाजनित शुद्ध कर्म = अबंधक कर्म = अकर्म है। जैसे कर्म से ही अकर्म प्रादुर्भूत होता है उसी प्रकार विकर्म भी कर्म से प्रादुर्भूत होता है। कर्म के दो विभाग- एक शुभ और दूसरा अशुभ। शुभ योगत्रय के साथ कषायरहित हो तो शुभास्त्रव = पुण्यरूप शुभबंध = कर्म कहलाता है तथा अशुभ योगत्रय के साथ कषाय हो तो अशुभास्रव = पापरूप अशुभबंध = विकर्म कहलाता है। आचारांग सूत्र में मूलकर्म को विकर्म और अग्रकर्म (शुभकर्म) को कर्म में गिनकर दोनों से बचकर अकर्म करने की प्रेरणा दी है। इस पंचम प्रकरण में आगे भगवद्गीता में कर्म, विकर्म और अकर्म का स्वरूप, बौद्ध दर्शन में कर्म, विकर्म और अकर्म का विचार कौन से कर्म बंधकारक और कौनसे अबंधकारक, तीनों धाराओं में कर्म-विकर्म और अकर्म में समानता, कर्म का शुभ-अशुभ और शुद्ध रूप, शुभकर्म स्वरूप और विश्लेषण, शुभ और अशुभ के निर्णय का आधार, बौद्ध दर्शन में शुभाशुभत्व का आधार, वैदिक धर्मग्रंथों में शुभत्व का आधार, जैनदृष्टि से कर्म का एकांत शुभत्व का आधार, शुद्ध कर्म की व्याख्या, शुभ-अशुभ दोनों कर्मों को क्षय करने का क्रम, अशुभ कर्म से बचने पर शुभ कर्म प्राय: शुद्ध बनते हैं इत्यादि विषयों का विशद विश्लेषण किया है। संसाररूपी महासमुद्र में अकुशल, अर्धकुशल और कुशल तीन प्रकार के नाविक के

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