Book Title: Jain Darm Me Karmsiddhant Ek Anushilan
Author(s): Bhaktisheelashreeji
Publisher: Sanskrit Prakrit Bhasha Bhasha Vibhag

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Page 357
________________ 341 दीपक जलाए रखना व्यर्थ है उसी प्रकार चारित्रशून्य व्यक्ति का शास्त्राध्ययन व्यर्थ है । समता, माध्यस्थभाव, शुद्धभाव, वीतरागता, चारित्र धर्म और स्वभाव - आराधना ये सारे . एकार्थवाची शब्द हैं । ३०३ सम्यक्चारित्र की आराधना करने से दर्शन, ज्ञान और तप इन तीनों की भी आराधना होती है, परंतु दर्शन आदि की आराधना से चारित्र की आराधना होती ही है, ऐसा नहीं । चारित्ररहित ज्ञान और सम्यक्त्वरहित लिंग (वेश) संयमहीन तप निरर्थक है । ३०४ जो मनुष्य चारित्रहीन है वह जीवित होकर भी मृतवत् है । सचमुच चारित्र ही जीवन है । जो चारित्र से गिर जाते हैं या च्युत हो जाते हैं उनका जीवन नष्ट हो जाता है। एक अंग्रेजी कहावत है If Weath is lost, nothing is lost, If heath is lost, Something is lost. If character is lost, Everything is lost. मानव का धन नष्ट हुआ तो उसका कुछ भी नष्ट नहीं हुआ, क्योंकि धन पुनः प्राप्त किया ज़ा सकता है। अगर उसका आरोग्य नष्ट हुआ तो थोडा बहुत नष्ट हुआ है, परंतु अगर मानव ने चारित्र ही गँवा दिया, तो उसने सर्वस्व गवाँ दिया है। विश्व में असली जीवन चारित्रशील व्यक्ति ही जीते हैं । भोगी, स्वार्थी और विषयलंपट व्यक्ति का जीवन निरर्थक है । सम्यक्चरि प्राप्त करने के लिए शरीरबल, बुद्धिबल और मनोबल की आवश्यक है । ३०५ जाना जाता है, वह ज्ञान है। जो देखा जाता है, या माना जाता है, उसे दर्शन कहा है और जो किया जाता है वह चारित्र है। ज्ञान और दर्शन के संयोग से चारित्र तैयार होता है । ३०६ जीव के ये ज्ञानादि तीनों भाव अक्षय और शाश्वत होते हैं । ३०७ सम्यक्चारित्र का आचरण करनेवाला जीव चारित्र के कारण शुद्ध आत्मतत्त्व को प्राप्त करता है । वह धीर, वीर पुरुष अक्षय सुख और मोक्ष प्राप्त करता है। चारित्र के दो भेद सम्यक्चारित्र के दो भेद इनके दूसरे नाम हैं १) निश्चय चारित्र और २ ) व्यवहार चारित्र । १) वीतराग चारित्र और २ ) सराग चारित्र ३०८ 1 निश्चय चारित्र निश्चयनय के अनुसार आत्मा का आत्मा में, आत्मा के लिए तन्मय होना यही निश्चयचारित्र है, वीतराग चारित्र है, ऐसे चारित्रशील योगियों को ही निर्वाण की प्राप्ति होती

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