Book Title: Jain Darm Me Karmsiddhant Ek Anushilan
Author(s): Bhaktisheelashreeji
Publisher: Sanskrit Prakrit Bhasha Bhasha Vibhag

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Page 350
________________ 334 ज्योति बुझ 'जाती है। वह कहाँ जाती है? वस्तुतः वह ज्योति विराट में से आई थी और विराट में ही विलीन हो गई । जैन दर्शन का कहना है कि दीप का बुझ जाना, उसकी ज्योति का नष्ट होना नहीं है, परंतु उसका रूपांतर या परिणामांतर होना है। क्योंकि जो है वह नष्ट नहीं हो सकता। इसी प्रकार जीव का निर्वाण होना उसका अस्तित्वहीन होना नहीं है, परंतु अव्याबाध स्वभाव परिणती को प्राप्त करना है। वैदिक परिभाषा में ऐसा कहा गया है कि आत्मा का अहं, ममत्व, देह आदि सब छोडकर विराट में याने परमात्मा में मिल जाना ही उसका निर्वाण है। जब आत्मा विराट में मिल जाती है, तब जीवन में कोई भी विकार शेष नहीं रहते । ऐसे विलीन होने को नाश नहीं कहा जा सकता, यह तो आत्मा का अपने विराट शुद्ध स्वरूप में लीन होना है । २६५ आचारांगसूत्र में निर्वाण का अर्थ 'स्वस्वरूप में स्थित होना' ऐसा है । २६६ इसके लिए आत्मा का विकार आवरण और उपाधि इनसे रहित होना अत्यंत - आवश्यक है। जैन दर्शन में निर्वाण का अर्थ यही किया गया है सभी विकारों से रहित होना । सब संतापों से रहित होकर सुख प्राप्त करना, सब द्वंद्वों से रहित होना, यही निर्वाण है क्योंकि जब तक आत्मा में काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, अहंकार, माया आदि विकार हैं, तब तक निर्वाण प्राप्त नहीं होता। निर्वाण के लिए जैन दर्शन की पहली शर्त है सब कर्मों का क्षय होना । २६७ राग- - द्वेषादि के क्षय से कर्मों का क्षय होता है। सभी कर्मों का क्षय होने पर आत्मा अपने वास्तविक स्वरूप में स्थित होती है और परम शांति प्राप्त करती है । पुनः पुनर्जन्म नहीं होता । नाम, रूप, आकार, साथ ही शरीर जनित सुख-दुःख, रागद्वेष, मोह आदि भी नहीं होते । २६८ जब शरीर हमेशा के लिए नष्ट होता है, तब शरीर के कारण होने वाले, २६९ मैं, मेरा, राग-द्वेष आदि विकार अपने आप क्षय हो जाते हैं। जहाँ जन्म-मरण नहीं होता, वहाँ आवागमन भी नहीं होता, २७० इसलिए वीतराग पुरुष राग-द्वेष को समाप्त करके परमात्म पद प्राप्त करते हैं और निर्वाण को प्राप्त करते हैं। सिद्धगतिनामक स्थान में अपने आत्मस्वरूप में हमेशा के लिए स्थित होते हैं । वहाँ से वापिस आना नहीं होता । 1 वहाँ की स्थिति शिव२७१ ( निरुपद्रव) अचल, अनंत, अक्षय, अव्याबाध और अपुनरावृत्ति की है । निरुपद्रव' इसलिए कहा है कि शरीर के कारण ही सब उपद्रव होते हैं । शरीर ही वहाँ नहीं है तो उपद्रव भी नहीं, अचल अवस्था यह मौन अशांति की सूचक है। जहाँ शरीर इन्द्रियाँ, मन आदि होते हैं, वहाँ हलचल होती है, संघर्ष होता है। जहाँ ये सारे मूर्त पदार्थ नहीं हैं, वहाँ शून्य मौन भाव और अखंड शांति होगी । वहाँ किसी भी प्रकार

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