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आत्मा की अनंत शक्ति बाधित है, अवरुद्ध है, आवृत है, दबी हुई है। वह पूर्णरूप से विकसित नहीं है। आत्मा की शक्ति पूर्णरूप से विकसित होने पर ही अनंत होती है।
इस कारण आत्मा प्रारंभ में अल्पशक्तिमान होता है, किन्तु धीरे-धीरे मनुष्य जन्म पाकर जब अपनी उन सुषुप्त बाधित या आवृत शक्तियों को जगाता और विकसित करता और एक दिन उन शक्तियों की परिपूर्णता तक पहुँच जाता है तब वह कर्मशक्ति कितनी ही प्रबल क्यों न हो वह पछाड देता है, परंतु जब तक अपनी अनंत शक्ति को परिपूर्ण विकसित नहीं कर लेता, तब तक वह अल्पशक्तिमान होता है । उस दौरान कर्मशक्ति उसे बार-बार दबा सकती है, उसे बाधित और पराजित कर सकती है । ७७
समयसार में कहा गया है- 'जहाँ तक जीव की निर्बलता है, वहाँ तक कर्म का जोर चलता है। कर्म जीव को पराभूत कर देता है । यह निश्चित समझ लेना चाहिए कि, आत्मा की परिपूर्ण विकसित अनंत शक्ति कर्म से कहीं अधिक प्रबल होती है । ७८
जैसे दो मुनष्यों, दो घोड़े, दो हाथी की बलवत्ता में तारतम्य होती है, अर्थात् एक अनंत महाबली और दूसरा अल्पबली या दुर्बल हो सकता है। जब आत्मा बलवान् होती है तो उसके सामने कर्म की शक्ति नगण्य हो जाती है, और जब कर्म प्रबल होते हैं तब उनके आगे आत्मा को दबना पडता है।
इस तथ्य को भली भाँति समझने के लिए एक उदाहरण लीजिए- जब जीवकृत कोई कर्म तप, जप, त्याग, संयम, ध्यान, चारित्र साधना आदि आध्यात्मिक साधनों से सत्पुरुषार्थ से नष्ट कर दिये जाते हैं, तब आत्मा बलवान दिखाई देती है, किन्तु जब कोई कर्म तप, त्याग, संयम आदि से क्षीण नहीं किये जाते या वह निकाचित कर्मरूप में बंध जाते हैं तो जीवात्मा के छक्के छुडा देते हैं, तब शक्तिशाली कर्म उसे नरकादि दुर्गतियों में ले जाकर यातनाओं के महासागर में पटक देता है । ७९ ज्ञान का अमृत८० में भी यही बात है।
विशेषावश्यकभाष्य- गणधरवाद में कहा गया है- 'कभी कर्म बलवान होते हैं और कभी आत्मा बलवान हो जाती है। आत्मा और कर्म में इस प्रकार पूर्वापरविरुद्ध टक्कर होती रहती है।' आशय यह है कि, कभी जीव काल आदि लब्धियों की अनुकूलता होने पर कर्मों को पछाड देता है और कभी कर्मों की बहुलता होने पर जीव उनसे दब जाता है । ८१ कर्म शक्ति को परास्त किया जा सकता है।
कर्मचक्र की अनवरत गति से यह नहीं समझना चाहिए कि, प्रत्येक आत्मा के लिए यह क्रम शाश्वत ही रहेगा। तप, त्याग, संयम और समत्व की साधना के द्वारा उत्कृष्ट पात्रता पाकर आत्मा कर्मचक्र की इस गति को समाप्त कर सकती है। आत्मा कर्मचक्र में ग्रस्त तभी