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योग आस्त्रव
___ योग- मन, वचन और काया की प्रवृत्ति को 'योग' कहते हैं। योग के कारण आत्मप्रदेश में परिस्पंदन होता है तथा मिथ्यात्व के कारण आत्मा कर्मों को ग्रहण करती है।६८ जिस प्रकार नदी के उद्गम स्थान पर मुसलधार वर्षा होने पर नदी के बाढ़ का पानी रोका नहीं जा सकता, उसी प्रकार मन, वचन, काया-रूप योग की प्रवृत्ति चलती रहती है, तब तक कर्म से निवृत्ति नहीं हो सकती है।६९ . जैनदर्शन में मन, वचन, काया से होने वाली आत्मा की क्रिया कर्म परमाणुओं के साथ आत्मा का योग संबंध स्थापित करती है, इसलिए उसे योग कहा गया है और उसके निरोध को ध्यान कहा गया है। आत्मा सक्रिय है और उसके प्रदेश में मन, वचन और काया के कारण परिस्पंदन होता रहता है। परिस्पंदन की क्रिया तेरहवें गुणस्थान तक होती है। चौदहवें गुणस्थान में अयोगी अवस्था होती है। मन, वचन, काया और क्रिया का पूर्णत: 'निरोध होता है और आत्मा शुद्ध एवं स्थिर होती है। ____ कर्मजन्य मलिनता और योगजन्य चंचलता नष्ट होने पर मोक्ष की प्राप्ति होती है। योग आस्रव है और उसके कारण कर्म का आगमन होता है। शुभयोग से पुण्य का आस्रव होता है और अशुभ योग से पाप का आस्रव होता है।७०
अगर कर्म का आस्रव रोकना है तो सर्वप्रथम मन का निग्रह करना पडेगा। मनोनिग्रह होने पर वचन और काय योग का निग्रह सहज होगा। मन का निग्रह दुष्कर है परंतु असंभव नहीं है। मनोनिग्रह के लिए जो उपाय गीता में७१ बताये गये हैं, वे ही पातांजल योगशास्त्र७२ में भी कहे गये हैं। अभ्यास और वैराग्य से चित्तवृत्ति का निरोध किया जाता है। __जैन शास्त्र में गुप्ति और समिति को निग्रह का उपाय कहा गया है। मनोनिग्रह के लिए उपाय के रूप में अन्य साधनों का भी उल्लेख किया गया है, परंतु इन सभी का एक ही अर्थ है कि प्रयत्नशील होकर निग्रह कीजिए। मन का निग्रह होने पर वचन और काया की प्रवृत्ति में अपने आप ही परिवर्तन होगा और कर्म के आस्रव में न्यूनता आयेगी।
प्रश्नव्याकरणसूत्र में भगवान ने आस्रव-पंचक का वर्णन किया है। उसी में भगवान ने कहा है कि आस्रव-पंचक का वर्णन किया है। उसी में भगवान ने कहा है कि आस्रव पंचक का त्याग करके संवर पंचक का भावपूर्ण रक्षण करने से जीव कर्म रज से मुक्त होता है और सर्वश्रेष्ठ सिद्धि प्राप्त करता है।७३ कर्मों का संवरण संवर
आस्रव को रोकना तथा कर्म को न आने देना 'संवर' है। संवर आस्रव का प्रतिपक्षी