Book Title: Jain Darm Me Karmsiddhant Ek Anushilan
Author(s): Bhaktisheelashreeji
Publisher: Sanskrit Prakrit Bhasha Bhasha Vibhag

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Page 332
________________ 316 साधक व्युत्सर्ग तप में पाषाण की प्रतिमा के समान स्थिर होकर दंशमशक आदि परिषह आने पर भी दुष्ट लोगों के द्वारा प्रहार किये जाने पर भी निराकुल भाव से आत्मा में लीन रहता है और साधना में दृढता बढने से परम सहिष्णुता प्राप्त करता है। अहंभाव, परिग्रह और ममत्वभाव के त्याग को 'व्युत्सर्ग-तप' कहते हैं। व्युत्सर्ग का अर्थ है- छोड देना या त्याग देना, बाह्य पदार्थों का त्याग बाह्य उपधि व्युत्सर्ग है। क्रोध, मान, माया, लोभ, मिथ्यात्व, हास्य, रति, अरति, भय, शोक, जुगुप्सा आदि अभ्यंतर दोषों की निवृत्ति अभ्यंतर उपधि व्युत्सर्ग हैं। कायोत्सर्ग पद में काया का अर्थ है शरीर और उत्सर्ग का अर्थ है परित्याग। इसमें कुछ समय के लिए शारीरिक हलचलों का त्याग करके मानसिक चिंतन किया जाता है। जैनसाधना में इस तप को महत्त्वपूर्ण स्थान दिया गया है और उसे आत्मशुद्धि के प्रत्येक अनुष्ठान के प्रारंभ में आवश्यक माना गया है। मानसिक चिंतन चाहे किसी प्रतिज्ञा के रूप में हो या संभावित दोषों की प्रत्यालोचना के रूप में हो, यह साधना हृदय तक पहुंचती है।१७४ १२) ध्यानतप - अभ्यंतर तप का यह छठा अत्यंत महत्त्वपूर्ण भेद है। मन को एक विषय पर एकाग्र करना अर्थात् केंद्रित करना 'ध्यान' है। वह गतिशील है। मन कभी शुभ विचार करता है, तो कभी अशुभ विचार करता है। मन के इस प्रकार के प्रवाह को अशुभ विचारों से परावृत्त करके, शुभ विचार पर केंद्रित- 'ध्यान' कहलाता है। ध्यान से आत्मबल बढता है और मन समाधिस्थ होता है। __ चित्त-विक्षेप का त्याग करके आत्म स्वरूप में लीन होना 'ध्यान' कहलाता है। ध्यान के विषय में कहा गया है कि मन, वचन और काया की प्रवृत्तियों का निरोध करना 'ध्यान' कहलाता है। ध्यान के विषय में कहा गया है कि मन, वचन और काया की प्रवृत्तियों का निरोध करना 'ध्यान' है। ध्यान के चार प्रकार हैं- १) आर्तध्यान, २) रौद्रध्यान, ३) धर्मध्यान और ४) शुक्लध्यान। आर्त और रौद्र ध्यान संसार के कारण हैं। इसलिए वे हेय (त्याज्य) हैं, किंतु धर्म और शुक्ल ध्यान मोक्ष के कारण हैं, इसलिए वे उपादेय हैं।१७५ जो कोई सिद्ध हुए हैं, सिद्ध हो रहे हैं और सिद्ध होगें उनकी सिद्धि का कारण शुभ ध्यान ही है।१७६ आचार्य हेमचंद्र ने कहा है- 'आपने विषय (ध्येय) में मन का एकाग्र होना ध्यान है। १७७ आचार्य भद्रबाहु ने भी कहा है चित्तसेग्गया हवइ झाणं।

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