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चारों प्रकार के बंध को संक्षेप में इस प्रकार कह सकते हैं- कर्म के स्वभाव को 'प्रकृतिबंध' कहते हैं । ज्ञानावरणादि कर्मों का काल विशेष तक अपने स्वभाव से च्युत न होना स्थितिबंध है। ज्ञानावरणादि कर्मरूप होने वाले पुद्गल स्कंध की परमाणु संख्या को प्रदेशबंध कहते हैं, और उनके रस की तीव्रता या मंदता अनुभागबंध है । इन चार प्रकार के प्रकृति और प्रदेशबंध योग के निमित्त से होते हैं, तथा स्थिति और अनुभाग बंध निमित्त से होता है । २२२ योग और कषाय के तर तम भावों से बंध में भी तरतमता आती है । २२३
ये चारों बंध सूंठ, मेंथी आदि वस्तुएँ एकत्रित करके उनसे बनाए हुए लड्डू के दृष्टांत से ' भी समझाये जाते हैं। ये लड्डू खाने से वात आदि विकार दूर हो जाते हैं, यह उनकी प्रकृति या स्वभाव हुआ। ये लड्डू जितने दिन टिकते हैं, उतनी उनकी कालमर्यादा है, यह स्थिति है। ये लड्डू कडवे मीठे होते हैं, यह उनका रस (स्वाद) अनुभाग हुआ। कुछ लड्डू बडे कुछ छोटे होते हैं, यह उनका परिमाण, मात्रा या प्रदेश है । लड्डू में जैसी ये चार बातें बताई हैं, उसी प्रकार कर्मों के बंध में भी ये चार बातें होती हैं। इसे ही चार प्रकार का बंध कहते हैं । प्रकृति अर्थात् स्वभाव, स्थिति अर्थात् कर्म की काल मर्यादा, अनुभाग अर्थात् कर्म का रस या तीव्रता, मंदता, और प्रदेश अर्थात् कर्म का परिमाण । २२४
• कर्मों से सर्वथा मुक्ति : मोक्ष
कर्मों को क्षय करने के लिए मोक्ष का स्वरूप जानना अत्यंत आवश्यक है। प्राणिमात्र . का अंतिम लक्ष्य मोक्ष ही है और उसी के लिए उनके सब प्रयत्न चलते हैं; परंतु मोक्ष कैसे प्राप्त होता है इसका ज्ञान सभी को होता ही है, ऐसा नहीं कहा जा सकता, इसलिए मोक्षमार्ग का विवेचन आवश्यक है। मोक्ष का अर्थ- कर्म के बंधन से मुक्ति । आत्मा का विशुद्ध स्वरूप ही मोक्ष है। इस प्रकार की विशुद्ध दशा में आत्मा कर्म संयोग से संपूर्णत: मुक्त होता है, इसलिए कहा गया है, कि जीव और कर्म का संपूर्ण वियोग ही मोक्ष है । २२५
यह बंध तत्त्व के पूर्णतया विपरीत है, जिस प्रकार कारागृह के संदर्भ में ही स्वतंत्रता का अर्थ ध्यान में आता है, उसी प्रकार बंध के संदर्भ में भी उसके प्रतिपक्षी मोक्ष का अर्थ स्पष्ट होता है । मिथ्यादर्शन आदि बंध के कारण हैं। उनका निरोध ( संवर) करने पर नए कर्मों के बंध अभाव होकर निर्जरा के द्वारा पूर्वोपार्जित कर्मों का नष्ट होना है, तब सब प्रकार के कर्मों हमेशा के लिए पूर्णमुक्ति प्राप्त होती है। यही मोक्ष है। बंध के कारणों का अभाव होने पर एवं - निर्जरा के द्वारा कर्मों का क्षय होना ही मोक्ष है । २२६
जैन धर्म में मोक्ष प्राप्ति के मुख्य दो कारण माने गये हैं- संवर और निर्जरा । संवर से आस्रव कर्म का आगमन रुक जाता है, अर्थात् नये कर्मों का बंध नहीं होता तथा निर्जरा