Book Title: Jain Darm Me Karmsiddhant Ek Anushilan
Author(s): Bhaktisheelashreeji
Publisher: Sanskrit Prakrit Bhasha Bhasha Vibhag

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Page 344
________________ 328 मोक्ष के लक्षण जब आत्मा कर्ममल (अष्टकर्म) एवं तज्जन्य विकारों (राग, द्वेष, मोह) और शरीर को नष्ट कर देता है। तब उसके स्वाभाविक ज्ञानादि गुण प्रकट हो जाते हैं और यह अव्याबाध, सुखरूप सर्वथा विलक्षण स्वरूप को प्राप्त करती है, इसे ही मोक्ष कहते हैं। जिस प्रकार बंधन में पडे प्राणी की बेडियाँ खोलने पर वह स्वतंत्र होकर, यथेच्छ गमन कर सुखी होता है। उसी प्रकार कर्म बंधन का वियोग होने पर आत्मा स्वाधीन होकर अनंत ज्ञान दर्शन रूप अनुपम सुख का अनुभव करती है।२३८ आत्मस्वभाव की घातक मूल और उत्तर कर्म प्रकृतियों के संचय से छुटकारा प्राप्त कर लेना, यही मोक्ष है और यह अनिर्वचनीय है। आत्मा और कर्म को अलग अलग करने को मोक्ष कहते हैं। २३९ बंध के कारणों का अभाव और पूर्वबद्ध कर्मों की निर्जरा से सब कर्मों का आत्यन्तिक क्षय होना यही मोक्ष है। २४० मोक्ष का विवेचन जैन दर्शन ईश्वरवादी नहीं, आत्मवादी दर्शन है। आत्मा ही परमात्मा बन सकता है। यह बात जैन धर्म में विशेष रूप से कही गई है। जैन धर्म का शाश्वत सिद्धांत है कि सुख ही आत्मा का स्वभाव है। शुभ कर्म से सुख और अशुभ कर्म से दु:ख प्राप्त होता है। सिद्धात्मा के सारे गुणों को एकत्रित करके उसका अनंतवाँ हिस्सा बनाया जाय तो भी इस लोक और अलोक में फैले हुए अनंत आकाश में नहीं समा सकेंगे। योगशास्त्र में भी कहा है कि स्वर्गलोक, मृत्यलोक एवं पाताल लोक में सुरेंद्र, नरेंद्र और असुरेंद्र को जो सुख मिलता है, वह सब सुख मिलकर भी मोक्ष सुख के अनंतवें भाग की बराबरी नहीं कर सकता। मोक्ष का सुख स्वाभाविक है। इन्द्रिय की अपेक्षा न रखने से वह अतीन्द्रिय है, नित्य है, इसलिए मोक्ष को धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चार पुरुषार्थ में परम पुरुषार्थ या चतुर्वर्ग-शिरोमणी कहा गया है।२४१ जैन दर्शन का प्रमुख उद्देश्य यह है कि, आत्मा दुःखों से मुक्त होकर अनंत सुख की ओर जाए। जीव और पुद्गल इन दोनों का संबंध अनंतकाल से चल रहा है। पुद्गल के बाह्य संयोग से ही जीव विविध प्रकार के दुःखों का अनुभव करता है। जब तक जीव और पुद्गल इन दोनों का संबंध नष्ट नहीं होता, तब तक आध्यात्मिक सुख संभव नहीं होगा। मोक्ष के लिए सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र ही श्रेष्ठ मार्ग बताया है ।२४२ अहिंसा और अनेकांत ये जैन दर्शन के मुख्य सिद्धांत हैं। विचारों में अनेकांत और व्यवहार में अहिंसा आने पर जीवन सुखी और शांत होता है। आत्मवाद, कर्मवाद और अनेकांतवाद, सप्तभंगी आदि जैन दर्शन के आधारभूत सिद्धांत हैं।

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