________________
298
जीव-अजीव आदि तत्त्वों को यथार्थ (जैसा हो वैसा) समझना और वैसी ही श्रद्धा रखना 'सम्यक्त्व' कहलाता है। सम्यग्दर्शन दो प्रकार का होता है- एक निसर्गज और सम्यग्दर्शन और दूसरा अभिगमज सम्यग्दर्शन१८, तत्त्वार्थसूत्र ९ में भी कहा है। सम्यक्त्व नैसर्गिक रीति से या परोपदेश से प्राप्त होता है। सम्यक्त्व पहचानने के लक्षण बताये हैं।१०० समकित यह मोक्ष प्राप्त करने के लिए बीजरूप अदृश्य शक्ति है। यह गुण शक्ति प्रगट हुई है, या नहीं वह ज्ञानी परमात्मा ही जान सकते हैं किन्तु अन्य धमार्थी जीवों को यह शक्ति प्राप्त हुई है यह जानने के लिए साधन के रूप में लक्षण बताये हैं। यह लक्षण पाँच प्रकार के हैं
१) शम, २) संवेग, ३) निर्वेद,
४) अनुकंपा, ५) आस्था। १) शम - क्रोधादि कषायों का उपशम या क्षय होना। २) संवेग - मोक्ष प्राप्ति की इच्छा रखना। ३) निर्वेद - संसार में उदासीन रहना। ४) अनुकंपा - जीवमात्र पर दया करना तथा उन्हें पीडा न पहुँचाना। ५) आस्था - सर्वज्ञ प्ररूपित धर्म के प्रति दृढ श्रद्धा रखना।१०१
जैनेन्द्रसिद्धांतकोश में१०२ में भी यही बात आयी है। सम्यक्त्व के पाँच अतिचार
१) शंका, २) कांक्षा, ३) विचिकित्सा,
४) अन्यदृष्टि प्रशंसा, ५) अन्यदृष्टि संस्तव ये पाँच सम्यक्त्व के अतिचार हैं।१०३व्रत नियमों को अंशत: पालन होना और अंशत: भंग होना ‘अतिचार' कहलाता है। दर्शन के पाँच अतिचारों का स्वरूप इस प्रकार है। १) शंका - अरिहंत भगवंत के कहे हुए सूक्ष्म और अतीन्द्रिय तत्त्वों में यह सही है या नहीं
__ ऐसा संदेह होना 'शंका' है। २) कांक्षा -धर्म का फल आत्मशुद्धि है, परंतु धर्म साधना में ऐहिक और पारलौकिक भोग
उपभोगों की आकांक्षा रखना ‘कांक्षा' है। ३) विचिकित्सा - संतों के मलिन शरीर और वस्त्रों को देखकर घृणा करना ही विचिकित्सा'
४) अन्यदृष्टि संस्तव - मिथ्यादृष्टि जीवों की वचनों द्वारा स्तुति करना 'अन्यदृष्टि-संस्तव'