Book Title: Jain Darm Me Karmsiddhant Ek Anushilan
Author(s): Bhaktisheelashreeji
Publisher: Sanskrit Prakrit Bhasha Bhasha Vibhag

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Page 316
________________ उसी प्रकार व्रत से सम्यक्त्व की पहचान होती है। आचारांगसूत्र में कहा है 'सम्यग्दृष्टि पाप कार्य नहीं करता। '१०६ व्रत से पाप कर्म की निवृत्ति होती है और पापकार्य की निवृत्ति से नये कर्मों के आस्रव रोके जाते हैं। आस्रव का रुकना ही कर्मरूपी रोग की दवा है । भावनाशतक १०७ में भी कहा है- 'विना व्रतं कर्मरूपास्त्रवस्तथा' । कर्मा श्रवरूपी रोग को नष्ट करने के लिए व्रत रूपी औषधि का उपयोग करना आवश्यक है । उपासकदशांगसूत्र में १०८ भगवान महावीर ने गृहस्थ श्रावकों के लिए उपभोग और परिभोग की मर्यादा को व्रत बताया है। उसके पीछे उनका उद्देश्य यही था कि संसार में भोग्य-उपभोग्य जितने भी पदार्थ हैं, उन सबका उपभोग एक व्यक्ति एक समय में, एक दिन में या जिंदगी भर में भी नहीं कर सकता,' भले ही उसके पास भोग्य उपभोग्य सामग्री प्रचुरमात्रा में हो। संसार में पदार्थ असंख्य हैं परंतु व्यक्ति की साँसें सीमित हैं। इस कारण वह सभी पदार्थों का उपभोग नहीं कर पाता, फिर भी सुविधावादी या भोगवादी को असीम मिलने पर भी संतुष्ट नहीं हैं। श्रमण भगवान महावीर स्वामी ने भी अपनी अंतिम वाणी उत्तराध्ययनसूत्र में भी यही कहा है कि इच्छाएँ आकाश के समान अंनत हैं । १०९ 300 जब तक श्वेच्छापूर्वक संकल्पबद्ध होकर पापों का त्याग नहीं किया जाता या नियमपूर्वक पाप नहीं छोडे जाते, तब तक अविरती आस्रव जारी रहता है। इससे विपरीत जो जीव अठारह पाप स्थानों से निवृत्त होता है वह पापकर्मों के बोझ से शीघ्र हल्का हो जाता है। उपासक दशांगसूत्र में भगवान महावीर ने धर्म के दो प्रकार बताये हैं- अगार धर्म और अगर धर्म । अनगार धर्म में साधक सर्वतः सर्वात्मना संपूर्ण रूप में सावद्य कार्यों का परित्याग करता हुआ वह संपूर्णत: प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन, परिग्रह तथा रात्रिभोजन से विरत होता है। भगवान ने आगे कहा है कि अगार धर्म १२ प्रकार का है - ५ अणुव्रत, ३ गुणव्रत तथा ४ शिक्षाव्रत । पाँच अणुव्रत १ २ ३ ४ मोठे तौर पर अपवाद रखते हुए प्राणातिपात से निवृत्त होना । स्थूल मृषावाद से निवृत्त होना । स्थूल अदत्तादान से निवृत्त होना । स्वदार संतोष अपनी परिणीता पत्नी तक मैथुन की सीमा । इच्छा परिग्रह की इच्छा का परिमाण या सीमाकरण । ५ तीन गुणवत ६ दिव्रत - विभिन्न दिशाओं में जाने के संबंध में मर्यादा या सीमाकरण ।

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