Book Title: Jain Darm Me Karmsiddhant Ek Anushilan
Author(s): Bhaktisheelashreeji
Publisher: Sanskrit Prakrit Bhasha Bhasha Vibhag

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Page 322
________________ 306 है, उसे निर्जरा कहा जाता है अर्थात् आत्मप्रदेशों के साथ लगे हुए कर्म प्रदेशों का झड़ जाना निर्जरा है। निर्जरा में एक साथ एक ही समय में समस्त कर्मों का क्षय नहीं होता। पूर्वबद्ध कर्मों में से जो कर्म उदय में आ जाते हैं और अपना सुख-दुःखरूप फल देने के अभिमुख हो जाते हैं उन्हीं कर्मों का फल आत्मा भोगती है एवं भोगने के बाद फल देकर वे कर्म झड जाते हैं। निर्जरा का अर्थ सर्वार्थसिद्धि में कहा है- आत्म-प्रदेशों से कर्ममल का आंशिक रूप से क्षय होना निर्जरा है।१२१ कर्मों का आंशिक रूप से क्षय होना और आत्मा का आंशिक रूप से विशुद्ध होना ही निर्जरा है। जैन दर्शन के अनुसार आस्रव के द्वारा कर्म आते हैं और राग-द्वेष के द्वारा बंध को प्राप्त होते हैं। जब तक जीवात्मा में राग-द्वेष के तत्त्व उपस्थित हैं, तब तक आस्रव और बंध की परंपरा चलती रहती है। यही संसार है, किन्तु जब आत्मा स्व-स्वरूप का परिज्ञान कर अपने स्व-स्वभाव में स्थिर होती है अर्थात् राग-द्वेष से ऊपर उठती है अर्थात् वीतराग अवस्था को प्राप्त करती है, तब नवीन कर्मों का आगमन अर्थात् आस्रव रुक जाता है। आस्रव का अभाव होने पर बंध भी नहीं होता है। आस्रव का रुक जाना ही संवर है। संवर के द्वारा नवीनकर्मों का आगमन रुक जाता है, किन्तु पूर्वबद्ध कर्मों की सत्ता बनी रहती है। जब तक पूर्वबद्ध कर्म नष्ट नहीं होते तब मुक्ति नहीं मिलती। पूर्वबद्ध कर्मों को नष्ट करने की यह प्रक्रिया ही निर्जरा कही जाती है। यह बात उदाहरण द्वारा स्पष्ट हो जाती है, जैसे तालाब में जब तक पानी के आगमन का स्रोत खुला रहता है पानी का आगमन नहीं रुकता, उन स्रोतों को बंद कर देने पर नवीन पानी का आगमन तो रुक जाता है, परंतु जो पानी तालाब में भरा हुआ है, उसे निकाले बिना तालाब खाली नहीं होता। तालाब में पानी के आगमन के स्रोतों को बंद कर देना संवर है और उसमें भरे हुए जल को निकाल देना या सुखा देना निर्जरा है। निर्जरा के द्वारा साधक आत्मरूपी तालाब से कर्मरूपी जल को निकालकर बंधन से मुक्त हो जाता है। १२२ समयसार में भी यही कहा है।१२३ आगमों में कहा गया है कि आत्मा पर लगे हुए कर्ममल का आंशिकरूप से क्षय होना अथवा उसका आत्मप्रदेशों से अलग होना ही निर्जरा की साधना है। आगमों में तप को निर्जरा का साधन बताया। तपरूपी अग्नी कर्मरूपी इंधन को जलाकर नष्ट कर देती है। तप से पूर्वबद्ध कर्मों का क्षय कर जीवात्मा सर्व दुःखों से मुक्त होकर मोक्ष को प्राप्त करता है । १२४ जिस प्रकार पानी से भरा तालाब सूर्य की गरमी से सूख जाता है। उसी प्रकार तपरूपी अग्नी से कर्मरूपी संचित जल सूख जाता है। तप कर्मों को नष्ट करने की प्रक्रिया है। मिथ्यात्व, कषाय तथा राग-द्वेष का त्याग करके निष्काम भाव से तपसाधना आत्मविशुद्धि के लिए आवश्यक है। आसक्तिपूर्वक अहंकार से युक्त होकर भौतिक उपलब्धियों के लिए किया

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