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उपयोग में लाये जाते हैं, सब कायक्लेश तप कहलाते हैं।१४१ तत्त्वार्थराजवार्तिक में भी यही कहा है।१४२ तप करने से शरीर को लघुता प्राप्त होती है, प्रत्येक कार्य निर्दोष होता है, संयम होता है और कर्मो की निर्जरा होती है।१४३
यहाँ तक बाह्य तप के संबंध में विचार किया गया है। अब अभ्यंतर तप का विवेचन किया जायेगा। जैन धर्म की तप विधि बाह्य से अंतर की ओर प्रगति करती है। जैनधर्म में तपों का क्रम इस प्रकार है। आभ्यंतर तप में मन की विशुद्धि, सरलता और एकाग्रता की विशेष साधना होती है। बाह्य तप की साधना से साधक अपने शरीर को जीतता है और शरीर का संशोधन करता है। आभ्यंतर तप के छह सोपान
१) प्रायश्चित, २) विनय, ३) वैयावृत्त्य,
४) स्वाध्याय, ५) व्युत्सर्ग, ६) ध्यान ये तप बाह्य द्रव्य की अपेक्षा नहीं रखते। ये अंत:करण के व्यापार से होते हैं। इन्हें अभ्यंतर तप कहते हैं।१४४ तत्त्वार्थराजवार्तिक में भी यही बात बताई है।१४५ ७) प्रायश्चित - धारण किये हुए व्रतों में प्रमाद के कारण लगे दोषों की शुद्धि करना प्रायश्चित तप कहलाता है। दोष शुद्धि के लिए उचित प्रायश्चित लेकर सम्यक् प्रकार से दोषों का निराकरण करना 'प्रायश्चित' तप है। राजकीय नियमों में जिस प्रकार अपराध के लिए दंड की व्यवस्था की गई है, उसी प्रकार धार्मिक नियमों में दोष के लिए प्रायश्चित की व्यवस्था की गई है। 'प्रायश्चित' दो शब्दों से मिलकर बना है- प्राय: और चित्त। प्राय: का अर्थ है- पाप और चित्त का अर्थ है- उस पाप का विशोधन करना। अर्थात् पाप को शुद्ध करने की क्रिया का नाम ही प्रायश्चित है।१४६ प्राकृत भाषा में प्रायश्चित को पायच्छित्त१४७ कहा जाता है। पायच्छित्त शब्द की व्युत्पति बताते हुए आचार्य कहते हैं- पाय अर्थात् पाप और छित्त अर्थात् छेदन करना जो क्रिया पाप का छेदन करती है अर्थात् पाप को दूर करती है, उसे पायच्छित्त कहते हैं।१४८ पंचाषक-सटीकविवरण में भी यही कहा है।१४९
मनुष्य प्रमाद में अनुचित कार्य करता है, दोषों का सेवन करता है, अनेक अपराध करता है, परंतु जिसकी आत्मा जागरुक रहती है, वह धर्म-अधर्म का विचार करता है, जिसके मन में, परलोक में अच्छी गति प्राप्त हो ऐसी भावना रहती है वह उस अनुचित आचरण के लिए मन में पश्चाताप करता है। ये दोष कांटे के समान उसके हृदय में चुभते हैं। उन दोषों से निवृत होने के लिए गुरुजनों के समक्ष पाप को प्रगट कर, प्रायश्चित लेना ही तप साधना की विधि है। प्रायश्चित को मुक्ति का मार्ग बताया है।१५०