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है वे उपाय संवर हैं। जिस प्रकार रोगी का रोग नष्ट होने में औषधि कारण है, उसी प्रकार आस्रव को रोकने वाले उपाय संवर है। सारांशत: आस्रव का निरोध करना ही संवर है।८५ भारतीयसंस्कृति८६ कोश में भी कहा है। जैन तत्त्व ज्ञान में गुणस्थानों का विशेष महत्त्व है। जो अंतिम गुणस्थान पर आरूढ़ होता है, वह निर्वाण (मोक्ष) पद पर आरुढ़ होता है। गुणस्थान चौदह हैं। ये चौदह गुणस्थान मोक्षमंदिर की चौदह सीढ़ियाँ हैं।८७
भगवान महावीर स्वामी ने संवर का अस्तित्व बताते हुए सूत्रकृतांगसूत्र में कहा है'यह मत समझो कि आस्रव और संवर नहीं है, अपितु यह समझो कि आस्रव और संवर है।८८ आस्रवद्वार कर्म के आगमन का द्वार है। यह द्वार बंद करने पर संवर का अस्तित्व स्थापित होता है। आत्मा को वश में करने पर आत्म-निग्रह से संवर होता है। यह उत्तम गुणरत्न है क्योंकि मोक्ष का मुख्य मार्ग संवर ही है। संवर आत्म निग्रह से होता है . आचार्य श्री हेमचंद्रसूरि कहते हैं- कि जिन उपायों से जो आस्रव रुकता है, उस आस्रव के निरोध के लिए उन्हीं उपायों का उपयोग करना चाहिए। जैसे क्षमा, मृदुभाव, ऋजुता, सरलता, संयम का पालन, पापकारी क्रिया का त्याग, व्रतादि का पालन तथा शुभध्यान में प्रवृत्ति करें।८९ सप्ततत्त्व-प्रकरण१० में भी यही बात कही है। मोक्षमार्ग के लिए संवर राजमार्ग
___ पहले संसार और बाद में मोक्ष ऐसा क्रम है। मोक्ष साध्य है, संसार त्याज्य है। इस संसार के मुख्य हेतु आस्रव और बंध हैं और मोक्ष के प्रमुख हेतु संवर और निर्जरा हैं।९१ संवर से आस्रव का अर्थात् नये कर्मों के आगमन का निरोध होता है। निर्जरा से पूर्वबद्ध कर्मों का क्षय होता है। इस प्रकार दोनों मोक्ष साधना के अनिवार्य साधन हैं। ___ मोक्ष के दो साधक तत्त्व हैं - १) संवर और २) निर्जरा। जितने आस्रव हैं उतने संवर भी हैं। आस्रव के पाँच भेद हैं, उसी प्रकार संवर के भी पाँच भेद हैं। संवर के भेद
संवर के दो भेद : द्रव्य संवर और भाव संवर। सब प्रकार के आस्रवों का निरोध संवर है। इनमें से कर्म पुद्गल के ग्रहण का छेदन या निरोध करना द्रव्य संवर है और संसार वृद्धि के कारण भूत क्रियाओं का त्याग करना तथा आत्मा का शुद्धोपयोग करना अर्थात् समिति, गुप्ति आदि भाव-संवर है।९२ ___पाँच व्रत, पाँच समिति, तीन गुप्ति, दश धर्म, बारह अनुप्रेक्षा, बाईस परीषहजय और पाँच चारित्र इन्हें जानना भाव संवर है। आत्मा तालाब के समान है, उसमें कर्मरूपी पानी