Book Title: Jain Darm Me Karmsiddhant Ek Anushilan
Author(s): Bhaktisheelashreeji
Publisher: Sanskrit Prakrit Bhasha Bhasha Vibhag

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Page 311
________________ 295 है। आत्मप्रदेशों में आगमन करने वाले कर्मों का प्रवेश रोकना ही संवर का कार्य है। आत्मा कर्मावृत बनकर संसार में परिभ्रमण करती रहती है, फिर भी आत्मविकास की शक्ति उसमें छिपी रहती है। अज्ञान से ज्ञान की ओर जाने के लिए जीव के प्रयत्न चलते रहते हैं। इस प्रकार के प्रयत्न करना ही संवर मार्ग पर चलना है। आस्रव तत्त्व में आत्मा के पतन की अवस्था को दिखाया गया है और संवर में आत्मा के उत्थान की अवस्था दिखाई गई है। आस्रव में दोष उत्पादक कारण बताये हैं और संवर में उन कारणों का निर्मूलन करने वाले उपाय बताये गये हैं। आत्म परिणाम अगर वैतरणी नदी है तो मनोरथों को पूर्ण करनेवाली कामधेनु भी है और जैसे नरक में कूट शाल्मली वृक्षों का जंगल है, वैसे ही स्वर्ग में नंदनवन भी है। इस प्रकार आस्रव है तो उसका प्रतिपक्षी संवर भी है।७४ बंध और मोक्ष आत्मपरिणाम पर ही निर्भर है। जब आत्मा अशुभ से निवृत्त होकर शुभ की तरफ मुड़ती है, मिथ्यात्व से सम्यक्त्व की ओर जाती है, अविरती से विरती की ओर मुड़ती है, तब कर्मों का आगमन रोका है और आत्मा आस्रव से संवर की ओर प्रवृत्त होती है । मिथ्यात्व आदि का अभाव होने पर आत्मा में कर्म प्रवेश नहीं कर सकते, अर्थात् नवीन कर्म का आस्रव नहीं होगा और आस्रव का निरोध होने पर शुभाशुभकर्म सकेंगे। इसी हेतु संवर का अस्तित्व स्थापित हुआ । ७५ नवपदार्थ ७६ और जैनेन्द्रसिद्धांत कोश७७ में भी यही बात है । संवर की व्याख्याएँ संवर शब्द सम् तथा वृ से मिलकर बना है। 'सम' उपसर्ग है और 'वृ' धातु का अर्थ है रोकना । यही संवर शब्द की व्युत्पत्ति है - आस्रव यह स्रोत का दरवाजा है । उसे जो रोकता है वही संवर है जो आत्मा को वश में करता है उनकी संवर क्रिया होती याने कर्मागमन रुक जाता है । ७८ जैनदर्शन७९ में भी कहा है । आस्रव का निरोध करना संवर है, अर्थात् समस्त आस्रवों को रोकना संवर है । मन, वचन, काय इन तीन गुप्तियों को निरास्त्रवी बनाना संवर है।८° उत्तराध्ययन८१ में भी यही बात कही है। हेमचन्द्राचार्यकृत योगशास्त्र ८२ और प्रशमरतिप्रकरण८३ में भी यही कहा गया है। आत्मा की रागद्वेषमूलक अशुद्ध प्रवृत्ति को रोकना संवर का कार्य है। संवर के कारण आत्मा में नवीन कर्मों का आगमन नहीं होता। जिसके कारण आत्मा में प्रवेश करने वाले कर्म रुकते हैं वह गुप्ति, समिति आदि से युक्त संवर क्रिया होती है । ८४ संवर आत्मा का निग्रह करने से होता है । यह निवृत्तिपरक है, प्रवृत्तिपरक नहीं है, इसलिए प्रवृत्ति ही आस्रव और निवृत्ति ही संवर है । जिन उपायों से आस्रव का निग्रह

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