Book Title: Jain Darm Me Karmsiddhant Ek Anushilan
Author(s): Bhaktisheelashreeji
Publisher: Sanskrit Prakrit Bhasha Bhasha Vibhag

Previous | Next

Page 308
________________ 292 प्रमाद के पाँच भेद १) मद, २) विषय, ३) कषाय, ४) निद्रा, ५) विकथा। इन पाँच प्रमाद का सेवन करने से जीव परिभ्रमण करता है।५२ मद- जाति, कुल, बल, रूप, तप, ज्ञान, लाभ, ऐश्वर्य और बडप्पन का गर्व करना।५३ विषय- पंचेंद्रिय का रूप, रस, गंध, स्पर्श और शब्द इन विषयों में आसक्त रहना। कषाय- क्रोध, मान, माया, लोभ इन कषायों में प्रवृत्ति रखना। निद्रा- नींद तथा आलस्य के कारण सुस्त रहना। विकथा- स्त्रीकथा, भत्तकथा, राजकथा और देशकथा आदि पापकारी क्रियाओं में रस लेना। हिंसा का मुख्य कारण प्रमाद है। दूसरे प्राणियों की हत्या हो या न हो, प्रमादी व्यक्ति को हिंसा का अशुभ फल मिलता है। संपूर्ण जगत में मानव जीवन सर्वश्रेष्ठ है, इसलिए उसे प्रत्येक क्षण का उपयोग नये कर्मागमन को रोकने के लिए और पूर्व के बाँधे हुए कर्मों का क्षय करने के लिए करना चाहिए।५४ जैनेन्द्रसिद्धांत कोश५५, जैन दर्शन५६ में यही बात है। साधक को भारंड पक्षी के समान अप्रमादी अर्थात् सावधान रहना चाहिए। 'भारंड पक्खी य चरे पमत्ते।'५७ भगवान महावीर ने छोटे बडे प्रत्येक साधक को चेतावनी देते हुए आचारांग सूत्र५८ में अभिव्यक्त किया है। 'अलं कुसलस्स पमाएणं' अर्थात् कुशल साधक को प्रमाद नहीं करना चाहिए। प्रमाद के ये पाँच प्रकार के साथी आत्मारूपी सूर्य को आच्छादित कर देते हैं। आत्मा की शक्ति को छिपाकर उसे कायर बना देते हैं। छठे गुणस्थान तक साधक में प्रमाद रहता है। प्रमाद के कारण रत्नत्रय की सम्यक् आराधना को भूलकर साधक, आराधक से विराधक बन जाता है। कषाय आस्त्रव कषाय- कष्+आय = दो शब्दों मिलकर 'कषाय' शब्द बना। कष् का अर्थ है संसार और आय का अर्थ है प्राप्ति। जीव विविध दु:खों के कारण संसार में कष्ट सहन करते हैं और पीडित होते हैं- जिसके द्वारा संसार की प्राप्ति होती है उसे कषाय कहते हैं।५९ ___ कषाय गति बडी ही तीव्र होती है। जन्म-मरणरूपी यह संसार कषायों से भरा हुआ है। यदि कषाय का अभाव हो जाये तो जन्म-मरण की परंपरा का विष वृक्ष स्वयं ही शुष्क होकर नष्ट हो जायेगा इसलिए आचार्य शय्यंभव६० ने कहा है- अनिग्रहीत कषाय पुनर्भव के मूल में पानी देते हैं, उसे सूखने नहीं देते हैं।

Loading...

Page Navigation
1 ... 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422