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होती है, जब वह राग, द्वेष, मोह, क्रोधादि कषायों के आवेग के कारण कर्म बंधनों से बद्ध हो जाती है। व्यक्ति चाहे तो स्वयं को इन विकारों से बंधनमुक्त रख सकता है। ___भगवान महावीर का यह संदेश उन कर्म मुक्ति गवेषकों के लिए परम प्रेरक है- 'आत्महितैषी व्यक्ति कर्मवर्द्धक क्रोध, मान, माया, लोभ आदि चार कषायादि का त्याग कर दे।'८२ क्रोधादि कषाय ही कर्मों के मूल स्रोत हैं। जब ये नष्ट कर दिये जाते हैं, तो इनकी नींव पर स्थित कर्मरूपी प्रासाद स्वत: ही धराशायी हो जाता है। आत्मा में स्वत: ऐसी शक्ति है कि, वह चाहे तो कर्मचक्र को स्थगित कर सकती है, स्वयं बंधन को काट सकती है। कर्म चाहे जितने ही शक्तिशाली हों आत्मा उससे भी अधिक शक्तिसंपन्न है।८३ जैसे अग्नि के बढते हुए कणों को रोका जा सकता है, वैसे ही आत्मा में प्रविष्ट एवं वृद्धि पाते हुए विजातीय कर्म परमाणुओं को भी रोका जा सकता है। आत्म शक्ति, कर्म शक्ति से अधिक क्यों ?
स्थूल दृष्टि से देखा जाये तो पानी मुलायम और पत्थर कठोर मालूम होता है, किंतु पहाड़ पर से धारा प्रवाह बहने वाला मुलायम पानी बड़ी-बड़ी कठोर चट्टानों को भी भेदकर उनके टुकडे-टुकडे कर डालता है। लोहा पानी से कठोर प्रतीत होता है, किंतु उसी लोहे को पानी के संपर्क में रखने पर वह उस गंज लगे काट को निकाल देता है। इसी प्रकार स्थूल दृष्टि से कठोर प्रतीत होने वाले कर्मों को आत्मा के तप, त्याग, संयम आदि शस्त्रों से तोडा जा सकता है। कर्म स्थूलदृष्टि से बलवान प्रतीत होता है, किंतु आत्मा ही बलवान है। आत्मा की शक्ति कर्म से अधिक है।८४
वास्तव में आत्मा को जब तक अपने स्वरूप और शक्तियों का ज्ञान नहीं होता, तब तक वह कर्मों को अपने से अधिक शक्तिशाली समझकर उनसे दबी रहती है। ऐसी स्थिति में जब आत्मा अपनी शक्ति के स्रोत से विस्मृत हो जाती है, तब कर्म उस पर हावी हो जाता है, परंतु जब आत्मा को अपनी शक्तियों का भान हो जाता है, वह भेद विज्ञान का महान अस्त्र हाथ में ले लेती है, तब आत्मा कर्मों को दबा देती है, नष्ट कर देती है।
अनंत-अनंत तीर्थंकर और वीतराग पथानुगामी अनेकों साधु-साध्वियों की आत्मा ने कर्मशक्ति पर विजय प्राप्त की है। वे लोग सच्चे कर्म विजेता बनकर जन मानस को यह उपदेश एवं संदेश देते हैं कि, 'महर्षिगण तप एवं संयम के द्वारा पूर्वकृत कर्मों को क्षीण कर उन्हें परास्त करके समस्त दुःखों को नष्ट करने का पराक्रम करते हैं।८५ उन्होंने कहा है, 'दुर्जेय संग्राम में लाखों सुभटों को जीतने वाला सच्चा विजेता नहीं, बल्कि कषायादि विकारों को जीतने वाला ही सच्चा विजेता है' । पाँच इन्द्रियों (विषयों के प्रति राग-द्वेष) को तथा क्रोधादि चार कषायों के कारण अशुद्ध बनी हुई दुर्जय आत्मा और उसके दुर्जेय कर्मों को जिसने जीत