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(प्रासाद) को जला रहे हैं। अत: आप अपने अंत:पुर की ओर क्यों नहीं देखते? उसकी रक्षा करना आपका कर्तव्य है ? १०
यह आस्रवरूपी अग्नी, आग लगाने वाले और उसे भडकाने वाले द्वारा लगाई जा रही है और आपके आत्मारूपी मंदिर को जलाकर भस्म कर रही है, विकृत बना रही है। आप इससे आत्मा को बचाकर अपने ज्ञानादि गुणों की निधि को सुरक्षित कीजिए। — जैन दर्शन में नवतत्त्व बताये हैं। जीवतत्त्व, अजीवतत्त्व, पुण्यतत्त्व, आस्रवतत्त्व, संवरतत्त्व, निर्जरातत्त्व, बंधतत्त्व और मोक्षतत्त्व।११ आस्रव का अर्थ है- पाप कर्मों का आना। अशुभ कर्म आत्मा में निरंतर आते ही रहते हैं। इसलिए जीव को संसार में परिभ्रमण करके अतीव दुःख सहन करना पड़ता है। जो आत्मा आस्रव को समझकर उससे दूर रहेगी वह कर्मबंधन से मुक्त रहेगी।
इस संसार में जीव को कष्ट देने वाले अनेक आस्रव हैं, जिनके फलस्वरूप नाना प्रकार के दुःख जीव को भोगने पड़ते हैं। आस्रव को आस्रवद्वार भी कहा गया है। स्थानांगसूत्र में पाँच आस्रवद्वार बताये गये हैं, ये आस्रव महाभयंकर हैं, इनमें पाप हमेशा आते ही रहते हैं। आस्रव की व्याख्याएँ - आस्रव शब्द 'स्' सरना, आत्मा में प्रवेश करना- इस धातु से बना है। जिससे कर्म आते हैं, उसे आस्रव कहते हैं। यह शुभ-अशुभ कर्मों के आगमन का हेतु है। मिथ्यात्व आदि बंध के हेतु हैं, इन्हें वीतराग परमात्मा ने आस्रव कहा है। आत्मा में कर्म के प्रवेश को भी आस्रव कहा गया है।१२ जैनतत्त्वदर्शन१३ में भी यही बात कही है। जिसके द्वारा कर्म का उपार्जन होता है, उसे आस्रव कहते हैं।१४ काय, वाक् तथा मन के कर्मयोग को आस्रव कहते हैं।१५
__ जैन आगम और जैनदर्शन में आस्रव की व्याख्या इस प्रकार की गई है- जिस क्रिया से, विचार से तथा भावना से कर्म वर्गणा के पुद्गल आते हैं वह आस्रव है।१६ केवल कर्मों का आना आस्रव है। १७ जिस प्रकार नदियों द्वारा समुद्र पानी से भरा रहता है, उसी प्रकार मिथ्यादर्शन आदि के स्रोत से आत्मा में कर्म आते हैं। १८
आस्रव की अनेक व्याख्याएँ हैं लेकिन सबका भावार्थ एक ही है। जीव के रागद्वेष आदि भावों से कर्म आते हैं और उसका बंध होता है। यह आस्रव की मूल क्रिया है।
आस्त्रव का लक्षण
___ संसारी जीव मन, वचन और काया से युक्त होते हैं। मन, वचन, काया को योग कहते हैं। योग से परिस्पंदनात्मक क्रिया प्रतिक्षण होती रहती है, जिसके कारण जीव हमेशा कर्म