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मिथ्यात्व की स्थिति में क्रोध, मान, माया और लोभ प्रबलतम होते हैं। इसका क्षेत्र भी विशाल है, काल भी बहुत व्यापक है और इसके भाव भी अनंत हैं। कर्मों का सबसे अधिक आगमन मिथ्यादृष्टि की अवस्था में होता है। - आगम शास्त्र में मिथ्यात्व को पाप कहा गया है। जब तक मिथ्यात्व का अस्तित्व होता है, तब तक शुभाशुभ सारी क्रियाओं को अध्यात्मदृष्टि से पाप ही कहा जाता है। शरीरधारी जीव के लिए मिथ्यात्व के समान दूसरा कोई भी अकल्याणकारी नहीं है। 'स्थानांगसूत्र में'४३ दस प्रकार के मिथ्यात्व का वर्णन इस प्रकार आता है
१) अधर्म को धर्म मानना, २) धर्म को अधर्म मानना, ३) उन्मार्ग को सुमार्ग मानना, ४) सुमार्ग को उन्मार्ग मानना, ५) अजीवों को जीव मानना, ६) जीवों को अजीव मानना, ७) असाधुओं को साधु मानना, ८) साधुओं को असाधु मानना,
९) अमुक्तों को मुक्त मानना, १०) मुक्तों को अमुक्त मानना। १) अधर्म को धर्म मानना
जिससे जीवों की हिंसा हो ऐसे धार्मिक अनुष्ठान में धर्म मानना मिथ्यात्व है। २) धर्म को अधर्म मानना
सर्वज्ञ द्वारा प्ररूपित धर्म परम हितकारी और सदा आचारणीय है, उसे अनाचरणीय मानना तथा अहिंसायुक्त धर्म यथातथ्य है, उसे असत्य मानना भी मिथ्यात्व है। ३) उन्मार्ग को सुमार्ग मानना
जो मार्ग संसार की वृद्धि कराता हो, उसे सन्मार्ग समझना मिथ्यात्व है। ४) सुमार्ग को उन्मार्ग मानना . सम्यग्ज्ञान, ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप रूप जो सुमार्ग या मोक्षमार्ग है, उन्हें कर्मबंध का या संसार परिभ्रमण का मार्ग कहना मिथ्यात्व है। ५) अजीव को जीव मानना
जड़ पदार्थों को जो चेतनामय या ब्रह्मस्वरूप मानते हैं और श्रद्धा रखते हैं, उसे मिथ्यात्व कहते हैं। ६) जीवों को अजीव मानना
एकेन्द्रियादि सूक्ष्म जीवों को जीव न मानना मिथ्यात्व है।