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पुद्गल के आस्रव ग्रहण करता रहता है। जिस प्रकार नदी द्वारा समुद्र को हमेशा पानी मिलता रहता है एक क्षण भी प्रवाह बंद नहीं होता, उसी प्रकार जीव, हिंसा, असत्य, राग-द्वेषात्मक प्रवृत्ति द्वारा कर्म को सतत् ग्रहण करता है। कर्म एक क्षण भी रुकता नहीं इसलिए कर्म आगमन के मार्ग को आस्रव कहते हैं।१९ पुण्यास्रव और पापास्त्रव
जीव का परिणमन दो प्रकार से होता है। शुभ और अशुभ। शुभभाव पुण्यास्रव और अशुभभाव पाप का आस्रव। जिस प्रकार सर्प के द्वारा ग्रहण किये गये दूध का विष में रूपांतर होता है और मनुष्य के द्वारा ग्रहण किये दूध का पोषण के रूप में रूपांतर होता है, उसी प्रकार बुरे परिणाम से आत्मा में स्रवित कर्मवर्गणा के पुद्गल पापरूप में परिणमन करते हैं और अच्छे परिणाम से आत्मा में स्रवित वर्गणा के पुद्गल पुण्यरूप में परिणमन करते हैं। जीव की अच्छी या बुरी भावना 'आस्त्रव' कहलाती है। २०
जिस जीव में प्रशस्त राग है, अनुकंपायुक्त परिणाम है और चित्त की कलुषता का अभाव है। उस जीव को पुण्यास्रव का बंध होता है।२१ प्रमादसहित क्रिया, मन की मलिनता
और इन्द्रियों के विषय में चंचलता इसके साथ ही अन्य जीवों को दु:ख देना, दूसरों की निंदा करना, बुरा बोलना आदि के आचरण करने से अशुभ योगी जीव पाप का आस्रव करता है, इसे ही पापास्रव कहते हैं।२२
हिंसा, असत्य, भाषण, चोरी, मैथुन और परिग्रह इन सबका त्याग करना ही जिनका लक्षण है, ऐसे व्रत को भावपूर्वक धारण करना पापात्रव कम करता है और पुण्यास्रव को बढाता है।२३ पाँचों पापों का त्याग करना ही व्रत है। व्रत से पुण्यकर्म का आस्रव होता
है।२४
द्रव्यास्त्रव और भावास्तव
आस्रव के दो भेद हैं- द्रव्यास्रव और भावात्रव। आस्रव के दो भेद मानने का कारण यह है कि संसारी जीव का शरीर आदि से संबंध है और संसार में अनेक प्रकार की पुद्गल वर्गणाएँ भरी हुई हैं। इनमें कार्मणा वर्गणा भी एक है और वह कर्मरूप बनने की योग्यता धारण करती है परंतु कार्मण वर्गणा कर्मरूप उसी समय बनती है, जब जीव आत्म प्रदेशों में परिस्पंदन करता है। इसलिए कार्मण वर्गणा और आत्म परिणाम - इन दोनों को अलगअलग समझने के लिए द्रव्यास्रव और भावात्रव ये दो भेद किये गये हैं। भावास्त्रव तेल से आवेष्टित पदार्थ के समान है और द्रव्यास्रव उससे चिपकने वाली धूल के समान है। भावास्त्रव निमित्त कारण है और द्रव्यास्त्रव सामर्थ्य के परिणाम को दिखाते हैं।