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षष्ठम् प्रकरण कर्मों का स्त्रोत : आस्त्रव
संसार के सभी प्राणी कर्मों से युक्त हैं। प्राणियों के जीवन में प्रतिक्षण कर्मों का आवागमन चलता रहता है। अल्पज्ञ जीव इस बात को नहीं जानते कि कर्म कब आये? कैसे आये और कब अपना फल देकर चले गये? संसार के प्राणी, विशेषरूप से मानव प्राय: नहीं जानते हैं
और न ही कभी जानने का प्रयल करते हैं कि 'हम यहाँ इस लोक में इस रूप में क्यों और किस कारण से आये हैं? कहाँ से आये हैं? कहाँ जाना है?'१ शुभ-अशुभ कर्मों के आगमन को जैन कर्मविज्ञान की भाषा में आस्रव कहते हैं।२ कर्म प्रवेश : जीव में कैसे?
जैसे बिजली, सूखी लकडी, प्लास्टिक या काँच आदि पर नहीं गिरती अर्थात् जिस व्यक्ति ने पैर में प्लास्टिक के जूते पहने होंगे या वह सूखी चीज पर खड़ा होगा तो उसे बिजली का करंट नहीं लगता परंतु जहाँ कोई धातु हो अथवा किसी धातु से लगकर पानी का स्पर्श हो रहा हो तो बिजली का करंट सारे शरीर में प्रविष्ट हो जायेगा। Broadcast से निकली हुई ध्वनि-तरंगे आकाश में सर्वत्र घूमती रहती हैं, परंतु प्रकट वहीं होती हैं जहाँ टी.वी., रेडियो या ट्राँजिस्टर का स्वीच खुला हुआ हो।
कर्मप्रायोग्य-पुद्गल परमाणु सारे आकाश में तथा जीव के आसपास में फैले हुए हैं, वे घूमते रहते हैं, पर प्रवेश उसी आत्मा में करते हैं जहाँ रागद्वेष आदि की चिकनाहट हो। कर्मों को खींचकर या आकर्षित कर आत्मा में प्रवेश कराने के कारण ही उन्हें आस्रव कहा जाता है। .
आगमों में आस्रव को समझाने हेतु तालाब की उपमा दी गई है। जैसे एक तालाब में पानी आने के पाँच द्वार हैं, उसी प्रकार आत्मा रूपी सरोवर में भी कर्मरूपी जल आने के पाँच आस्रव द्वार हैं। इन द्वारों में से एक द्वार भी यदि खुला रहे तो कर्म आयेंगे।३ तत्त्वार्थसार और तत्त्वार्थराजवार्तिक' और नवपदार्थ में भी यही बात कही है।
आस्रव का विवेचन आचार्यों ने दो प्रकार से किया है- जिससे कर्म आये वह आस्रव है अथवा आस्रवण मात्र याने कर्मों का आना मात्र आस्रवण है। राजवार्तिक में इस संबंध में एक रूपक है- जैसे समुद्र खुला रहता है, उसे कोई बाँध या तट नहीं बना होता। इसलिए जल से परिपूर्ण नदियाँ चारों ओर से आकर समुद्र में भर जाती हैं। इसी प्रकार आत्मरूपी समुद्र के चारों ओर से कर्मरूपी जल आने के छोर खुले होने से उन स्रोतों द्वारा कर्म भी निश्चितरूपसे