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उत्पन्न करता है। इस प्रकार ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अंतरायकर्म ये चार घाति कर्म हैं, जो आत्मा के स्वभाव, आत्मगुणों का घात करते हैं। २२ सुख दुःख जीव के कर्माधीन वेदनीयकर्म
सांसारिक प्राणी के जीवन के दो अभिन्न साथी हैं- सुख और दुःख। ये दोनों जन्ममरण से सर्वथा मुक्त होने तक जीव के साथ-साथ रहते हैं, अलग नहीं होते। ऐसा नहीं होता कि सदा सुख ही सुख रहे या सदैव दुःख ही दुःख रहे। सुख और दुःख का संबंध वेदन से है। जीव अगर किसी सजीव या निर्जीव पदार्थ को लेकर सुख का अनुभव (वेदन) करता है तो सुख है, दुःख का वेदन करता है तो दुःख है। ये सुख और दुःख का वेदन भी कर्माधीन है। वेदनीय कर्म से ये दोनों इस प्रकार जुडे हुए हैं कि, वह वास्तविक आत्मिक सुख का भान नहीं होने देता। इसके प्रभाव से जीव सांसारिक सुख दुःख को सुख दुःख अथवा वस्तुनिष्ठ समझता है। वेदनीय कर्म की तुलना कर्मग्रंथ में मधुलिप्त तलवार से की गई है। एक तीखी धार वाली तलवार पर शहद का लेप लगा हुआ है। उस मधु के स्वाद के लोभ में आकर एक व्यक्ति उस तलवार पर जीभ लगाकर शहद चाटता है, परंतु उस प्रक्रिया से उसकी जीभ कटे बिना नहीं रहती। हितैषी पुरुष उसे इस मधु का लोभ छोडने को कहते हैं, किन्तु वह कहता है- एक बूंद मधु और चाँट लूँ। एक-एक बूंद मधु के लिए वह तरसता है। दुःख और विपत्ति की संभावना होते हुए भी वह इसे छोडना नहीं चाहता।
इसी प्रकार का वेदनीय कर्म है, जो सुख और दुःख दोनों का घटक है। मनुष्य क्षणिक सुख के लोभ में दुःख बीज सुख को अपनाता है। जानता है कि, इस विषयसुख या क्षणिक सुख के पीछे जन्म मरणादि के अगणित दुःखों का अंबार लगा हुआ है, फिर भी वह मोहांध होकर छोडता नहीं है।२३
अध्यात्मवेत्ता आचार्य कहते हैं कि, सुख भोगा जा रहा है वह दुःख का बीज है। सुखाशक्ति घोर दुःखजनक असातावेदनीय कर्मों को उत्पन्न करती है। इस प्रकार वेदनीय कर्म जीव को पराधीन बनाकर सांसारिक क्षणिक सुख-दुःख के झूले में झुलाता है। दुःखबीज सुख के मोह से मनुष्य ज्ञानी महापुरुषों की बात को नहीं मानता। राजवार्तिक में कहा गया है कि, सुख-दुःख की उत्पत्ति में कर्म बलवान है।२४ आयुष्यकर्म ___संसारी जीवों का जन्म और मरण भी आयुष्य कर्म के आधीन है। उसके जन्म-मरण की डोरी आयुष्य कर्म से बँधी हुई है। वह अपने कर्मानुसार जन्म लेता है। स्वकर्मानुसार