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नीच गोत्र कर्म का आशय है। गोत्र कर्म को कुम्भकार से उपमित किया गया है।३°कुम्भकार बहुमूल्य और कममूल्यवाले घट आदि का भी निर्माण करता है।
__ इसी प्रकार गोत्रकर्म मनुष्य की उच्चता और नीचता का द्योतक है। इस प्रकार जीव गोत्रकर्म के आधीन होकर अपनी स्वतंत्रता को भी खो देता है।३१ गोम्मटसार में भी यही बात कही है। कर्म जीव की शक्तियों को विकृत बनाता है
आठों ही कर्म आत्मा के साथ बंधकर उसकी स्वाभाविक ज्ञानादि शक्तियों को विकृत कर डालते हैं। 'समयसार' ३३ में कहा गया है- 'जिस प्रकार मैल श्वेत वस्त्र को मलिन बना देता है, उसी प्रकार मिथ्यात्व, अज्ञान और कषाय परिणमनरूप कर्ममल ज्ञान, दर्शन, चारित्र स्वरूप शुद्ध आत्मा को मलिन कर देता है।' परमात्म-प्रकाश३५ में भी कहा गया है कि, 'कर्म आत्मा को पस्तंत्र कस्के तीनों लोक में परिभ्रमण कराता है।' धवलारे में भी कहा गया है कि, 'कर्म आत्मा की ज्ञानादि स्वाभाविक शक्तियों को घात करता है और उसे परतंत्र कर देता है तथा आत्मा विभाव रूप में परिणमन करने लगती है।' समयसार३६ परमात्मप्रकाश३७ और तत्त्वार्थराजवार्तिक३८ में भी यही बात आयी है। आत्मा का स्वभाव विकास : कर्मस्वाभाव अवरोध
आत्मा सत् चित् आनंद स्वरूप है, अनंतज्ञान, दर्शन, अनंतशक्तिमय है। आत्मा अपने चैतन्य का ज्ञान, दर्शन तथा आत्मशक्ति का विकास करने में स्वतंत्र है। आध्यात्मिक दिशा में जितना भी विकास हुआ है उसमें (आत्मा) जीव का स्वतंत्र विकास स्पष्ट परिलक्षित है। आत्मा अपने निजी गुणों का विकास करने में पूर्ण-स्वतंत्र है।३९
कर्म का स्वभाव आध्यात्मिक शक्तियों का विकास करना नहीं है। उसका स्वभाव जीव के ज्ञानादि स्वभाव के विकास में अवरोध उत्पन्न करना, जीव के मूल स्वभाव को विकृत करना, ज्ञानादि गुणों को आवृत करना तथा जीव के ज्ञानादि आत्मगुणों के विकास
को बाधित करके उसे परतंत्र बनाना है। कोई भी पुद्गल आत्मिक विकास में मूल कारण नहीं बनता। कर्म जीव के निजीगुणों का विकास करने में बाधक बनता है, इसलिए
आध्यात्मिक विकास के कर्तृत्व में वह जीव की स्वतंत्रता पर हावी हो जाता है और बाधा डालती है। फिर भी विकास इसलिए होता है कि, जीव (आत्मा) की स्वतंत्र चैतन्यरूप सत्ता है, ज्ञानादि स्वभाव उसका उपादान है, वह कर्म से पृथक् है। ज्ञाना का विकास आत्मा करती है, कर्म नहीं
उपादान वह होता है, जो उसे द्रव्य का घटक हो, जैसे मिट्टी घड़े का उपादान है। उसमें