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संबंध तोडा कैसे जायेगा ? क्योंकि सामान्य नियम यह है कि जो अनादि होता है, वह अनंत भी होता है, उसका कभी अंत नहीं हो सकता। जैन कर्मसिद्धांत मर्मज्ञों ने इसका समाधान करते हुए कहा है कि कर्म और आत्मा के अनादि संबंध के बारे में यह नियम सार्वकालिक नहीं है। अनादि के साथ अनंतता की कोई व्याप्ति नहीं है । अनादि होते हुए भी सान्तता पाई
है। वृक्ष की संतति की परंपरा की अपेक्षा अनादि कहा जाता है, किन्तु बीज को जला देने पर वृक्ष की परंपरा का अंत आ जाता है। इसी प्रकार तत्त्वार्थसार में कहा गया है। आत्मा (जीव) से कर्मबीज के दग्ध हो जाने पर फिर भवांकुर की (संसार में उत्पन्न होने की ) उत्पत्ति नहीं होती। बीज वृक्ष परंपरा जैसे टूट जाती है, वैसे ही कर्म का आत्मा के साथ संबंध टूट सकता है। इसी तथ्य को सूत्रकृतांग सूत्र में इंगित किया गया है- पहले बंधन को जानो समझो फिर उसको तोड डालो। १८७ कर्मग्रंथ भाग - ११८८ में तथा सूत्रकृतांग१८९ में भी यही बात बताई है। जो धीर वीर मुनिपुंगव होते हैं, वे अपने तप संयम से सुदृढ रहते हैं । उन्हें . अनायास ही कर्म से छुटकारा मिलता है।
जैसे स्वर्ण और मिट्टी का दूध और घी का बीज और वृक्ष का अनादि संबंध है, तथापि प्रयत्न विशेष से पृथक् पृथक् होते हुए देखे जाते हैं; वैसे ही आत्मा और कर्म के अनादि संबंध का अंत हो जाता है।
चार प्रकार के संबंध
आत्मा और कर्म के संबंध के रहस्य को समझने के लिए हमें सर्वप्रथम इन चार प्रक के संबंधों को समझ कर लेना चाहिए। अनादि अनंत, २ ) अनादि सांत, ३) सादि अनंत
और ४) सादि सांत ।
जिस संबंध का न तो आदिकाल हो नहीं अंतकाल वह अनादिअनंत होता है। जिसका आदिकाल तो न हो किन्तु अंतकाल हो, वह अनादि सांत होता है। जिसका आदिकाल हो पर अंतकाल न हो वह सादि अनंत होता है।
जिसका आदिकाल भी हो तथा अंतकाल भी वह संबंध सादिसांत होता है । १९० आत्मा और कर्म का तीन प्रकार से संबंध
आत्मा और कर्म का संबंध कब से है और कब तक रहेगा? इस प्रश्न का समाधान जैन दर्शन ने इस प्रकार किया है- 'आत्मा और कर्म का संबंध अनादि अनंत भी है, अनादिसांत भी है और सादिसांत भी । १९१
आत्मा और कर्म का अनादि संबंध
कर्म प्रवाह की दृष्टि से आत्मा और कर्म का संबंध अनादि माना गया है। प्रवाह रूप या