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144 यद्यपि काल, स्वभाव, नियति और कर्म इन सभी तत्त्वों से मनुष्य बंधा हुआ है और जब तक बंधन है, तब तक वह पूर्णतया स्वतंत्र नहीं है। ये सारे तत्त्व मनुष्य की स्वतंत्रता के प्रतिबंधक हैं। वे उसकी परतंत्रता को बढाते हैं, तथापि यह निश्चय समझ लीजिए कि कोई भी प्राणी पूर्णरूप से परतंत्र नहीं है। अगर वह पूर्णरूप से परतंत्र होता तो उसकी चेतना का अस्तित्व या उसका व्यक्तित्व ही समाप्त हो जाता। अत: काल, धर्म आदि जितने भी तत्त्व हैं, वे शक्तिमान होते हुए भी सर्व शक्ति संपन्न नहीं हैं। इन सबकी शक्ति मर्यादित है। कर्म की अपनी एक सीमा है। वह आत्मा पर प्रभाव डालता है, परंतु उसी आत्मा पर जिसमें रागद्वेष हो, कषाय हो, राग-द्वेष, कषायरहित आत्मा पर कर्म का कोई भी प्रभाव नहीं पडता, उसका वश वहाँ नहीं चलता।
जैन दर्शन में साधना का मूलसूत्र यही बताया है कि मनुष्य साधना में पुरुषार्थ करने में स्वतंत्र है। प्रसन्नचंद्र राजर्षि कायोत्सर्ग मुद्रा में स्थित रहते ही मन से घोर पापकर्म बंध गये थे, किन्तु कुछ ही समय बाद उनकी चेतना जागृत हुई, उन्होंने अपने स्वरूप को संभाला और उत्कृष्ट शुद्ध परिणाम धारा में बहकर पश्चाताप की अग्नि में समस्त कर्मों को भस्म कर डाला। वे समस्त कर्मबंधनों से सर्वथा मुक्त सिद्ध परमात्मा बन गये। अत: कर्म की शक्ति
और उसकी सीमा को समझने से ही कर्मवाद का रहस्य हृदयंगम हो सकेगा। यद्यपि कालवाद, स्वभाववाद और नियतिवाद इन सब में कर्मवाद व्यापक है। ईश्वर कर्तव्यवादी भी कर्मवाद को मानते हैं और आत्मकर्तृत्ववादी भी कर्मवाद को स्वीकारते हैं, फिर भी एकांत कर्मवाद को ही सब घटनाओं का कारण मान लेना मिथ्या धारणा है। पुरुषार्थवाद की मीमांसा
पांच कारणों में अंतिम कारण पुरुषार्थ है। पुरुषार्थ कर्म को काटने या बदलने के लिए वर्तमान कालीन उद्यम है- ज्ञानादि रत्नत्रय साधना में इसे पुरुषार्थ, प्रयत्न, उद्यम आदि भी कहा जाता है। पुरुषार्थ वाद का अपना दर्शन है। उनका कथन है कि, संसार में सभी पदार्थों या धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष आदि पदार्थों की सिद्धि के लिए पुरुषार्थ ही एकमात्र समर्थ है। बिना पुरुषार्थ के कोई भी कार्य सिद्ध नहीं होता। संसार में प्रत्येक कार्य के लिए नीतिकार भी उद्यम (पुरुषार्थ) का ही समर्थन करते हैं। सोये हुए सिंह के मुहँ में मृग प्रविष्ट नहीं हो जाता।' जो व्यक्ति हाथ पर हाथ धरकर बैठा रहता है, उसके घर के आंगन में लक्ष्मी आकर नहीं बसती । उद्यमी पुरुष के पास ही लक्ष्मी आती है। जो कायर और आलसी होते हैं- वे ही कहा करते हैं कि दैव (भाग्य) स्वयं देगा। अत: दैव को छोडकर अपनी शक्ति भर पुरुषार्थ करो।६७ व्यावहारिक दृष्टि से सोचें तो भी उद्यम किये बिना कोई भी वस्तु तैयार नहीं होती।