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जीव कब स्वतंत्र और परतंत्र ?
वस्तुतः देखा जाये तो शुद्ध चैतन्य के कारण जीव में स्वतंत्रता की धारा सदैव प्रवाहित रहती है, किन्तु जब वह चैतन्य, राग द्वेषादियुक्त होता है तो, परतंत्रता की धारा भी साथसाथ प्रवाहित होती रहती है। इसलिए छद्मस्थ जीव (आत्मा) में इन दोनों ही पक्षों- स्वतंत्रता और परतंत्रता का संगम बना रहता है। उसे किसी एक पक्ष में बाँटा नहीं जा सकता । शरीर, कर्म और राग-द्वेष से बँधा होने के कारण जीव स्वतंत्रता की अपेक्षा परतंत्रता का अधिक अनुभव करता है। इस प्रकार परतंत्रता के कारण उसकी स्वतंत्रता टिक नहीं पाती। स्वतंत्रता चलती है, पर परतंत्रता आवृत कर देती है, परंतु पूर्णतया नहीं । १४ जिनवाणी विशेषांक में भी यही बात बताई है । १५
कर्म जीव को क्यों परतंत्र बनाता है ?
कर्म जीव (आत्मा) को परतंत्र क्यों बनाता है? इस विषय में गहराई से विचार करने पर स्पष्ट प्रतीत होता है कि, आत्मा का स्वभाव ज्ञान, दर्शन, चारित्र, सुख और शक्तिसंपन्न है। आत्मा (जीव) जब ज्ञानादि स्वभाव या स्वरूप को छोडकर, विस्मृत करके राग-द्वेष, काम, क्रोध, लोभ, अहंकार, माया-कपट, विषयासक्ति आदि पर भावों या विभावों में रमण करने लगता है; तब उन वैभाविक परिणामों से कर्म पुद्गल आकृष्ट होकर बंध जाते हैं । १६
जैनाचार्य कुंदकुंद के शब्दों में- 'जब आत्मा अपने स्वभाव को छोडकर रागद्वेषादि परिणामों (विभावों) से युक्त होकर शुभ या अशुभ कार्यों (योगों) में प्रवृत्त होती है, तब कर्मरूपी र ज्ञानावरणीयादि रूप से उसमें प्रविष्ट हो जाती है'। ऐसी स्थिति में आत्मा निज स्वरूप को भूल जाती है, विभावों के कारण विमूढ़ होकर कर्माधीन बन जाती है। संक्षेप में कहे तो आत्म-विस्मृति से या स्वभाव की विस्मृति से कर्म आत्मा को परतंत्र बना देता है। यह परतंत्रता जब अधिकाधिक जटिल होती है, तब उसे स्वभाव का भान नहीं होता; तथा वह कर्म के पाश में जकडने वाले मिथ्यात्वादि मूल कारणों को छोडने का पराक्रम नहीं करता। जब तक आत्मा संवर और निर्जरा द्वारा आने वाले कर्मों को स्थगित और पूर्वबद्ध कर्मों को क्षीण नहीं कर देती, तब तक आत्मा की कर्म परतंत्रता मिट नहीं सकती ।
कर्मों द्वारा जीवों का परतंत्रीकरण
ज्ञानावरणीय कर्म
आत्मा का मूल लक्षण उपयोग है । १७ उपयोग के दो भेद हैं- साकार और अनाकार । साकार उपयोग को ज्ञान और अनाकार उपयोग को दर्शन कहा गया है। यहाँ पर साकार का अर्थ सविकल्प है और अनाकार का अर्थ निर्विकल्प है। जो उपयोग वस्तु के विशेष अंश