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. इस कर्म के प्रभाव से प्राणियों के कान, नाक, जबान और स्पर्श ये इन्द्रियाँ नष्ट हो जाती हैं या उनकी इन्द्रियों से उन्हें सामान्य बोध भी स्पष्ट नहीं हो पाता अथवा मूक-बधिर (बहरा) अपंग हो जाते हैं। उन्हें जन्म से ही मन नहीं मिलता या मन मिलता है तो मनन शक्ति, विचार शक्ति और स्मरण शक्ति आदि अतीव मंद हो जाती है।
इसके अतिरिक्त दर्शनावरणीय कर्म उदय में आने पर जीव को निद्रा, निद्रा-निद्रा, प्रचला, प्रचला-प्रचला और थीणद्धी (स्त्यानगृद्धि) इन पाँच प्रकार की निद्राओं में से स्वकर्मानुसार निद्रा आती है। जिसके कारण वस्तु का सामान्य बोध भी नहीं होता। दर्शनावरणीय कर्म की स्थिति
दर्शनावरणीय कर्म की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त की, उत्कृष्ट तीस कोडाकोडी सागरोपम की, अबाधाकाल तीन हजार वर्ष की, प्रज्ञापना सूत्र८० तत्त्वार्थसूत्र-१ और कर्मग्रंथ में८२ भी इसका वर्णन आता है। वेदनीय कर्म का निरूपण
जो कर्म आत्मा को सुख-दुःख का अनुभव कराता है, वह 'वेदनीय कर्म' कहलाता है। सांसारिक प्राणियों का जीवन न एकांत सुखमय है और न एकांत दुःखमय वेदन रूप है। वेदनीय कर्म सांसारिक सुख-दुःख का वेदन कराता है। सामान्य रूप से वेदनीय' का शब्दश: अर्थ है जिसके द्वारा वेदन यानी अनुभव हो वह वेदनीय कर्म है। आत्मा के सुख-दुःख के उत्पादक कर्म को वेदनीय कर्म कहा है।
वेदनीय कर्म के प्रभाव से जो सुख-दुःख का अनुभव होता है८३ वह सांसारिक, भौतिक, क्षणिक और पौद्गलिक होता है।८४ आत्मा के अक्षय अनंत और अव्याबाध आत्मिक सुख से उनका कोई संबंध नहीं है। यह वैषयिक सुख, सुखाभास है और मन का माना हुआ सुख है, जिसमें दुःख मिश्रित है। इसलिए यह सुख-दुःख का लक्षण प्राणियों के मन से विशेष संबंधित है। कहा भी है 'अनुकूलवेदनीयं सुखम्, प्रतिकूलवेदनीयं दुःखम्' अर्थात् अनुकूल वस्तु की प्राप्ति से जो अनुकूल वेदना का अनुभव किया जाता है, वह सुख है और जिसमें प्रतिकूल वेदन का अनुभव किया जाता है, वह दुःख है।८५
वेदनीय कर्म की तुलना शहद से लिपटी हुई तलवार से की गई है जैसे तलवार की धार पर लगे हुए शहद को चाटने से सुख का अनुभव होता है। उसी प्रकार साता वेदनीय कर्म के उदय से सुख का अनुभव होता है; साथ ही मधुलिप्त तलवार को चाटते हुए जिह्वा के कट जाने पर दुःख का अनुभव होता है। उसी प्रकार असाता वेदनीय कर्म के उदय से दुःख का