________________
201
५) नोकषाय चारित्र मोहनीय
नोकषाय चारित्र मोहनीय का अनुभाव है हास्य भयादि जो बाँधा है तदनुसार नोकषायों का उत्पन्न होना । १२९
मोहनीय कर्म का प्रभाव
दर्शन मोहनीय कर्म का ऐसा प्रबल प्रभाव है, जिससे आत्मा, पर- पदार्थों में रुचि रखती है। जैसे स्त्री पुत्रादि मेरे हैं, धन-धान्यादि संपत्ति मेरी है, मेरे पन की कल्पना करती हुई आत्मा उनमें इष्ट-अनिष्ट का भाव रखती है, उनके उपभोग में सुख मानती है और वियोग में दुःख मानती है। तात्त्विक विवेक के अभाव में संसारी जीव बाह्य पदार्थों में उलझा रहता है तथा पदार्थों की प्राप्ति के लिए अपना बहुमूल्य समय एवं शक्ति भी खर्च कर देता है ।
तत्त्वोपदेश मिलने पर भी उनकी मति एवं गति बाहर से हटकर अन्तर्मुखी नहीं होती । ...कदाचित् क्षणिक वैराग्य आ जाये, लेकिन लंबे समय तक वैराग्य भावों के टिकना कठिन है । दर्शन मोहनीय के प्रभाव से आत्मा तात्त्विक निरीक्षण परीक्षण में न लग कर निंदा आलोचना करने में अपनी शक्ति लगा देती है, इस प्रकार मिथ्या श्रद्धा रूप मोह को दर्शन मोहनीय कहा गया है।
मोहनीय कर्म को यथार्थ रूप से समझकर इस प्रबलतम कर्म पर विजय प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिए तथा जिन कारणों से इन प्रकृतियों का आगमन और बंध होता है उनसे बचने का अर्थात् नये आते हुए कर्मों को रोकने का और पूर्वबद्ध कर्मों की निर्जरा (क्षय) करने का पुरुषार्थ सतत करना चाहिए।
मोहनीय कर्म की स्थिति
जघन्य अन्तर्मुहूर्त की, उत्कृष्ट ७० कोडाकोडी सागरोपम की, अबाधाकाल जघन्य अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट सात हजार वर्ष का १३०
आयुष्य कर्म का निरूपण
आयुष्य कर्म अस्तित्व से प्राणी जीवित रहता है और इसके क्षय होने से मृत्यु का आलिंगन करता है। देव, मनुष्य, तिर्यंच और नरक इन चार गतियों में से किस आत्मा कितने काल तक अपना जीवन वहाँ बिताना है या उस नियत शरीर से बद्ध रहना है, इसका निर्णय आयुष्य कर्म करता है। यह इस आयु कर्म का प्रभाव है, जिसके कारण आत्मा गति और शरीर को छोडकर दूसरी गति व शरीर को धारण करती है।
आयुकर्म का कार्य आत्मा को सुख - दुःख देना नहीं है, अपितु नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देवगति में से किसी एक गति में निश्चित अवधि तक बनाये रखना है। जब आयुष्य कर्म