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मनुष्य आयुष्य चार प्रकार से बाँधे
१) प्रकृति से भद्र (सरलता), २) प्रकृति से विनय,
३) सानुकोषे (दया), ४) अमत्सर (ईर्षारहित) १) प्रकृति से भद्र (सरलता)
मन, वचन, काया की एकरूपता को सरलता कहते हैं। जहाँ हृदय की सरलता हो, वहाँ धर्म के बीजों का वपन होता है।१४४ इसी कारण प्रकृति की भद्रता को मनुष्यायु बंध का कारण कहते हैं। २) प्रकृति से विनय
विनम्रता का अर्थ दबकर चलना या डर कर रहना नहीं है। नम्रता का अर्थ अन्तस् से झुकना। झुकने से हृदय के द्वार खुलते हैं। विनयभाव ही मनुष्यायु का बंध कराता है। उत्तराध्ययनसूत्र में१४५ कहा है- 'कि विनय धर्म का मूल है'। ३) दयालुता (सानुकोषे)
दूसरों के दुःख में दुःखी होना दया है। दयापूर्ण हृदय में सद्भाव एवं सहयोग का जन्म होता है। अपने सुख का त्याग करके भी दूसरों के कष्टों को दूर करने का भाव जिस हृदय में हो वह मनुष्यायु का बंध करता है। ४) अमत्सर (ईर्षारहित होना)
ईर्षा की अग्नि समस्त सुखों की जला देती है। दूसरों के सुखों को देखकर जो व्यक्ति जलता है, कुढता है, उसे मनुष्यायु प्राप्त नहीं होती है। देवआयुष्य चार प्रकारे बाँधे
१) सराग संयम, २) संयमासंयम, ३) बालतप,
४) अकाम निर्जरा१४६ १) सराग संयम
संयम का अर्थ है आत्मा को पापों से संवृत करना, हिंसादि सभी पापों से विरत रूप चारित्र ग्रहण करने पर भी जब तक राग या कषाय का अंश शेष है, तब तक संयम शुद्ध नहीं होने पर उसे सराग संयम कहते हैं। शुद्ध संयम से कर्म क्षय होता है, किन्तु रागयुक्त संयम पालने से देवायु का बंध होता है।