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किया था। अत: उनकी वह तपस्या उसी भव में कर्म मुक्ति का हेतु नहीं बन सकी। - मन एक पक्षी है। राग और द्वेष उसके दो पंख हैं। जो उसे विकल्पों के जगत् में उडाए ले चलते हैं। पक्षी के जब पंख कट जाते हैं तो वह उड नहीं पाता, उसी तरह जब राग और द्वेष हट जाते हैं तो मन निर्विकल्प-सुस्थिर हो जाता है।२४६ जब योगी आत्मा पराक्रम द्वारा राग-द्वेष का पराभव करने में सक्षम हो जाते हैं। तो उनके मन से विषमता निकल जाती है, समता का अभ्युदय होता है तब वह ऐसी स्थिति पा लेता है जहाँ उसके लिए सुख और दुःख, हानि और लाभ, जीवन और मृत्यु, इष्ट और अनिष्ट सब एक समान हो जाते हैं। न लाभ से प्रसन्न होता है और न हानि से दु:खी होता है। गीता२४७ में ऐसे पुरुष को स्थित प्रज्ञ कहा है।
प्रशस्त राग
राग और द्वेष सर्वथा त्याज्य होते हुए भी जब तक इनका सर्वथा त्याग न किया जाए तब तक अप्रशस्त राग-द्वेष का त्याग करके प्रशस्तराग अपनाना चाहिए। शुभ -अशुभ परिणती के कारण 'नियमसार' २४८ में राग-द्वेष भी प्रशस्त और अप्रशस्त बताये गये हैं। - शुभ हेतु, शुभाशय या प्रशस्त संकल्प बुद्धि से किये गये राग-द्वेष कथंचित् इष्ट हैं। अरिहंत देव, निग्रंथ गुरु और शुद्ध धर्म के प्रति आत्म कल्याण की दृष्टि से किया गया राग प्रशस्त है। मेरी आत्मा का कल्याण हो, मेरे कर्मों की निर्जरा हो, मेरा संसार परिभ्रमण कम हो और मेरी आत्मा का विकास होकर मुझे शीघ्र मोक्ष मिले, ऐसी पवित्र भावना से देव, गुरु
और धर्म के प्रति तीव्र अनुराग रखना और प्रशस्त भावों से भक्ति करना, प्रशस्त राग है। मोक्ष प्राप्ति की भावना रखना भी प्रशस्त राग कहलाता है। देव के प्रति प्रशस्त-राग
'प्रवचनसार २४९ में कहा गया है- प्रशस्त राग जब देव, गुरु और धर्म के प्रति होता है तब कषाय में बुद्धि नहीं होती। जैसे गणधर गौतम स्वामी का भगवान महावीर के प्रति प्रशस्त राग था, जिसमें संसार की पद-प्रतिष्ठा या लौकिक आकांक्षा की कोई कामना नहीं थी। उनकी अनुरक्ति का उद्देश केवल अपना आत्म कल्याण और मोक्ष प्राप्ति की इच्छा का था। इसलिए एक क्षण भी प्रभु महावीर से बिछुडना गौतम स्वामी के लिए असहय था। यदि उनका राग प्रशस्त न होकर अप्रशस्त कोटिका होता, तो उन्हें जन्म मरण के चक्र में भटकना पडता। गुरु के प्रति प्रशस्त राग
निग्रंथ गुरु के प्रति आचार्य, उपाध्याय या साधु-साध्वी के प्रति जो राग-भाव होता है उसमें गुरु का शिष्य के प्रति और शिष्य का गुरु के प्रति कल्याण कामना का प्रशस्त राग होता है। जंबूस्वामी को अपने गुरु सुधर्मास्वामी पर प्रशस्त राग था, अत: जंबूस्वामी भी उसी भव में मोक्ष गये।