Book Title: Jain Darm Me Karmsiddhant Ek Anushilan
Author(s): Bhaktisheelashreeji
Publisher: Sanskrit Prakrit Bhasha Bhasha Vibhag

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Page 233
________________ - 219 उदय जीव२१९ के पूर्वकृत जो शुभ या अशुभ कर्म अपने अपने समय पर परिपक्व दशा को प्राप्त होकर जीव को फल देकर क्षय हो जाते हैं इसे ही कर्म का उदय कहते हैं। कर्म के विपाक को उदय कहते हैं। २२० द्रव्य, क्षेत्र, काल व भाव के निमित्त के वश कर्मों के फल का प्राप्त होना उदय है। २२१ उदीरणा ___ जिस प्रकार समय से पूर्व कृत्रिम रूप से फल को पकाया जा सकता है, उसी प्रकार नियतकाल के पूर्व ही प्रयासपूर्वक उदय में लाकर कर्मों के फलों का भोग लेना उदीरणा है। साधारण रूप से यह नियम है कि जिस कर्म प्रकृति का उदय या भोग चल रहा है, उसकी सजातीय कर्म प्रकृति की उदीरणा संभव है।२२२ नियत समय से पूर्व कर्म का उदय में आना उदीरणा कहलाता है, अथवा न पके हुए कर्मों को पकाने का नाम उदीरणा है।२२३ संक्रमण - संक्रमण का अर्थ है- बदलना। ‘एक अवस्था से धीरे-धीरे बदलते हुए दूसरी अवस्था में पहुँचना'।२२४ जीव के परिणामों के प्रयत्न विशेष से कर्म प्रकृति को बदलकर अन्य प्रकृतिरूप हो जाना संक्रमण है। जो प्रकृति पूर्व में बंधी थी उसका अन्य प्रकृति रूप में परिणमन हो जाना संक्रमण है। २२५ जिस अध्यवसाय से जीव कर्म प्रकृति का बंध करता है, उसकी तीव्रता के कारण वह पूर्वबद्ध सजातीय प्रकृति के दलिकों को बद्धमान प्रकृति के दलिकों के साथ संक्रान्त कर देता है, परिवर्तित कर देता है, वह संक्रमण है।२२६ संक्रमण चार प्रकार का होता है। १) प्रकृति संक्रमण, २) स्थिति संक्रमण, ३) अनुभाग संक्रमण, ४) प्रदेश संक्रमण। ___ संक्रमण किसी एक मूलप्रकृति का उसकी उत्तर प्रकृतियों में ही होता है दूसरे शब्दों में सजातीय संक्रमण प्रकृतियों में ही संक्रमण माना गया है विजातीय प्रकृतियों में नहीं, इस नियम से अपवाद है आयुकर्म की चार उत्तर उपप्रकृतियों में तथा दर्शन मोहनीय और चारित्र मोहनीय तथा दर्शन मोहनीय की उत्तर प्रकृतियों में संक्रमण नहीं होता। २२८ उपशम ___ कर्मों के उदय को कुछ समय के लिए रोक लेना, उपशम कहलाता है।२२९ कर्मों के उदय के अभाव में उतने समय के लिए जीव के परिणाम अत्यंत शुद्ध हो जाते हैं, परंतु अवधि हो जाने पर नियम से कर्म पुन: उदय में आ जाते हैं और जीव के परिणाम पुन: गिर जाते हैं।

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