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उपशम करण का संबंध मोह कर्म व तज्जन्य परिणामों से ही होते हैं, ज्ञानादि व अन्य भावों से नहीं क्योंकि रागादि विकारों में क्षणिक उतार चढाव संभव है। जैसे कतक फल या निर्मली डालने से मैले पानी का मैल नीचे बैठ जाता है और जल निर्मल हो जाता है, उसी तरह परिणामों की विशुद्धि से कर्मों की शक्ति का अनुद्भूत रहना अर्थात् प्रकट न होना उपशम है। २३० दूसरे शब्दों में 'आत्मा में कर्म की निज शक्ति का कारण वश प्रकट न होना उपशम है'। जैसे कतक आदि के संबंध से जल में कीचड का उपशम हो जाता है।२३१ निधत्ति
कर्म की वह अवस्था निधत्ति कहलाती है, जिसमें उदीरणा और संक्रमण का सर्वथा अभाव रहता है, किन्तु इस अवस्था में उद्ववर्तना तथा अपवर्तना की संभावना रहती है।२३२ जो कर्म उदयावलि प्राप्त करने से व अन्य प्रकृतिरूप संक्रमण करने में समर्थ हो वह निधत्ति कहलाता है। इसके विपरीत जो उदयावलि प्राप्त करने में या अन्य प्रकृति रूप संक्रमण करने में अथवा उत्कर्ष करने में समर्थ न हो उसे निकाचित कहा जाता है। निकाचना
___ जिन कर्मों का जिस रूप में बंध हुआ है, उनका उसी रूप में अनिवार्यत: फल भोगना निकाचना कहलाता है। निकाचना की स्थिति में उद्ववर्तना, अपवर्तना, संक्रमण और उदीरणा ये चारों अवस्थाएँ नहीं होती। इसमें कर्मों का बंधन इतना प्रगाढ़ होता है कि उनकी काल मर्यादा एवं तीव्रता (परिणाम) में कोई परिवर्तन नहीं किया जा सकता। यह निकाचना के विषय में सामान्य और सर्व प्रचलित मत है, किन्तु अर्हत्दर्शनदीपिका में निकाचित दशा में भी परिवर्तन होने का संकेत पाठ मिलता है।
शुभ परिणामों की तीव्रता से सभी कर्म प्रकृतियों का ह्रास होता है और तपोबल से निकाचित का भी अवक्रमण ह्रास होता है।२३३ प्रवचनकार पू. गणिवर्य भी युगभूषण जी म.सा. ने अपने अनेकांतवाद में कहा है- प्रायश्चित से निकाचित कर्म क्षय नहीं होता, किंतु उनके साथ रहे हुए अनिकाचित कर्मों क्षय होता है। निकाचित कर्म अकेला कभी नहीं 'बंधता, साथ में अनिकाचित कर्म भी बंधता है। जैसे डाकुओं की टोली होती है यदि उसे तोडा जाय तो उनकी शक्ति कम हो जाती है। उसी प्रकार अनिकाचित कर्म क्षय होने से निकाचित कर्म का बल (शक्ति) कम हो जाता है। २३४ ।।
इसका विशेष रहस्य विचार और शोध का विषय है। धवला के अनुसार भी जिनबिंब के दर्शन से निकाचित रूप मिथ्यावादी कर्म कलाप का क्षय होता है।२३५