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२) लाभान्तराय
लाभांतराय की अप्राप्ति का मूल कारण लाभान्तराय कर्म है। इच्छित या प्रिय वस्तु की अप्राप्ति से मनुष्य अशांत, संतप्त और उद्विग्न रहता है। महान पुरुषार्थ को भी लाभान्तराय कर्म निष्फल कर देता है।
भगवान ऋषभदेव ने लाभान्तराय कर्म बाँधा था। फलत: जब वे अनगार बने और आहार लेने के लिए घर-घर गये तो उनको कोई आहार नहीं देता था। सोना, चांदी, हीरे, मोती देने को लोग तत्पर थे, परंतु भोजन कोई नहीं देता था। एक वर्ष से अधिक समय तक आहार न मिलने पर भी उनके मन में हस्तिनापुर के लोगों के प्रति द्वेष या दुर्भाव पैदा नहीं हुआ, क्योंकि भिक्षा की अप्राप्ति का सही कारण वे जानते थे। 'मेरे ही लाभान्तराय कर्म के कारण मुझे आहार नहीं मिल रहा है, जब लाभान्तराय कर्म नष्ट होगा, तब सहजता से आहार मिल जायेगा!' ३) भोगान्तराय
भोग की परिभाषा करते हुए बताया गया- एक बार जिस वस्तु का भोग कर लेने के बाद दुबारा जिसका भोग नहीं हो सकता है ऐसी भोजन, पानी आदि वस्तुओं को भोग कहा जाता है। यदि मन पसंद भोजन नहीं मिलता है या जिस समय भोजन मिलना चाहिए उस समय नहीं मिलता हो तो दूसरों को दोष नहीं देना चाहिए, क्योंकि वह तो मात्र निमित्त है, मूल कारण 'भोगान्तराय कर्म' ही है। ४) उपभोगान्तराय
जो वस्तु बार-बार भोगी जाती है, वह उपभोग्य कहलाती है। वस्त्र, आभूषण, मकान, फर्नीचर आदि। उपभोग्य सामग्री मिल जाने पर भी और उपभोग करना चाहते हुए भी प्राप्त न होना उपभोगान्तराय कर्म जानना चाहिए।१८८ ५) वीर्यान्तराय
युवावस्था में शरीर स्वस्थ एवं शक्तिशाली होने पर भी यदि मनुष्य अपने को सत्त्वहीन, कमजोर एवं वृद्ध व्यक्ति के समान समझता है अथवा कार्य विशेष में पुरुषार्थ नहीं कर पाता
और स्वयं को असमर्थ महसूस करता है तो यह वीर्यांतराय कर्म का प्रभाव जानना चाहिए। . कर्म ग्रंथकारों ने आध्यात्मिक दृष्टि से वीर्यान्तराय कर्म के तीन भेद किये हैं१) बाल वीर्यान्तराय कर्म
समर्थ होने पर भी तथा कार्य करना चाहते हुए मनुष्य इस कर्म के उदय से सत्कार्य या नैतिक सांसारिक कार्य नहीं कर पाता।