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९) नपुंसक वेद
जिस कर्म के उदय से स्त्री और पुरुष दोनों के साथ रमण करने की इच्छा हो, उसे नपुंसक वेद कहते हैं। १२७ इस प्रकार नोकषाय मोहनीय कर्म के नौ भेदों का वर्णन उत्तराध्ययन सूत्र में आता है। १२८ मोहनीय कर्मबंध के कारण सामान्यतया मोहनीय कर्म का बंध छह कारणों से होता है।
१) तीव्र क्रोध, २) तीव्र मान, ३) तीव्र माया,
४) तीव्र लोभ, ५) तीव्र दर्शन मोहनीय, ६) तीव्र चारित्र मोहनीय। उत्तर प्रकृतियों की अपेक्षा से दर्शन मोहनीय तथा चारित्र मोहनीय कर्म बंध के कारण पृथक्-पृथक् बताये हैं। स्थानांगसूत्र के अनुसार दर्शन मोहनीय कर्म के ५ कारण बताये हैं।
१) अरिहंत भगवंतों के अवर्णवाद (निंदा) करने से। २) अरिहंत प्ररूपित धर्म का अवर्णवाद करने से। ३) आचार्य उपाध्याय का अवर्णवाद करने से। ४) श्रमण-श्रमणी, श्रावक-श्राविकारूप चतुर्विध संघ का अवर्णवाद करने से। ५) तपस्वी और ब्रह्मचारी का अवर्णवाद करने से मोहनीय कर्म का बंध होता है।
क्रोधादि कषाय, हास्यादि नौकषाय में आसक्त आत्मा चारित्र मोहनीय कर्म का बंध करती है। मोहनीय कर्म पांच प्रकार से भोगे
मोहनीय कर्म सभी कर्मों में प्रबलतम एवं भयंकर है। इस कर्म का फल जीवात्मा पांच प्रकार से भोगता है। १) सम्यक्त्व मोहनीय . सम्यक्त्व मोहनीय का फलभोग समकित की प्राप्ति नहीं होना। २) मिथ्यात्व मोहनीय
मिथ्यात्व मोहनीय का फल भोग तत्त्वों का अयथार्थ याने कि विपरीत श्रद्धान होना। ३) मिश्र मोहनीय
मिश्र मोहनीय का फल भोग तात्त्विक श्रद्धान में डावाँडोल होना। ४) कषाय चारित्र मोहनीय
कषाय चारित्र मोहनीय का अनुभाव क्रोधादि कषायों का उत्पन्न होना।