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संज्वलन कषाय
इस कषाय के उदय से आत्मा को यथाख्यात चारित्र की प्राप्ति नहीं होती उसे 'संज्वलन कषाय' कहते हैं। यह केवलज्ञान की उत्पत्ति में बाधक बनता है। यह कषाय उपसर्ग या कष्ट
आने पर साधु के चित्त में समाधि और शांति नहीं रहने देता, किन्तु इसका असर लंबे समय तक नहीं रहता। इस कषाय की अवधि अधिक से अधिक पंद्रह दिन की है। इस कषाय के वशीभूत हुई आत्मा देवगति में जाने योग्य कर्मों को ग्रहण करती है।१२१ १) संज्वलन क्रोध
जल में खीची जाने वाली रेखा के समान है यह क्रोध तत्काल शांत हो जाता है। २) संज्वलन मान
यह मान कषाय बिना परिश्रम के झुकाये जाने वाले बेत के समान है जो अपने आग्रह को क्षणमात्र में छोडकर दूसरों के सामने तुरंत झुकने वाले होते हैं। ३) संज्वलन माया
___ बाँस के छिलके में रहने वाला टेढ़ापन बिना श्रम किये सीधा हो जाता है, उसी प्रकार यह माया भाव सरलता से दूर होता है।१२२ ४) संज्वलन लोभ . हल्दी के रंग के समान है। जैसे वस्त्र पर लगा हुआ हल्दी का रंग सहज में उड जाता है, उसी प्रकार जो लोभ विशेष प्रयत्न किये बिना तत्काल अपने आप दूर हो जाता है, वह संज्वलन लोभ है। २) नोकषाय चारित्र मोहनीय का स्वभाव
चारित्र मोहनीय का दूसरा प्रकार नोकषाय मोहनीय है। यहाँ 'नो' शब्द का अर्थ अल्प अथवा सहायक है। ये कषाय क्रोधादि के साथ उदय में आते हैं और उन्हें उत्तेजित करते हैं। कर्मग्रंथकारों ने नोकषाय की परिभाषा देते हुए कहा है जो कषाय तो न हो किन्तु कषाय के सहवर्ती हो, कषाय के उदय के साथ जिनका उदय होता है, उन्हें नोकषाय कहा है। इसे अकसाय भी कहते हैं। १२३ नोकषाय मोहनीय कर्म नौ भेद - १) हास्य, २) रति, ३) अरति,
४) भय, ५) शोक, ६) जुगुप्सा, ७) स्त्रीवेद, ८) पुरुषवेद, ९) नपुंसक वेद।१२४