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३) प्रचला निद्रा
खडे-खडे या बैठे-बैठे ही नींद आ जाने को 'प्रचला' कहते हैं। जब किसी मनुष्य को इस प्रकार की नींद आती है, तब वे प्रवचन श्रवण करते हुए, किसी की बात सुनते हुए या टी.वी. देखते हुए बैठे-बैठे सो जाते हैं। पशु भी खडे-खडे निद्रा लेते हैं। इस कर्म के उदय से खडे-खडे या बैठे-बैठे निद्रा आती है, उसे प्रचला दर्शनावरणीय कर्म कहते हैं।७३ .४) प्रचला-प्रचला
जिस कर्म के उदय से चलते-फिरते नींद आ जाये। पशु चलते-फिरते सो जाते हैं। जिस कर्म के प्रभाव से जीव को चलते हुए निद्रा आती है उसे प्रचला-प्रचला दर्शनावरणीय कर्म कहते हैं। ५) स्त्यानर्द्धि या स्त्यानगृद्धि निद्रा
जिस कर्म के उदय से जागृत अवस्था में सोचे हुए कार्य को निद्रावस्था में करने का सामर्थ्य प्रकट हो जाये, उसे स्त्यानर्द्धि कहते हैं। इस निद्रा के उदय से जीव नींद में ऐसे असंभव कार्यों को भी कर लेता है, जिनका जागृत स्थिति में होना संभव नहीं है और इस निद्रा के दूर होने पर अपने द्वारा निद्रित अवस्था में किये गये कार्य का स्मरण भी नहीं रहता
स्त्यानर्द्धि का दूसरा नाम स्त्यानगृद्धि भी है। जिस निद्रा के उदय से निद्रित अवस्था में विशेष बल प्रकट हो जाये। इस निद्रा वाला जीव मरने पर नरक में जाता है ।७४ उत्तराध्ययनसूत्र,७५ जैनतत्त्वप्रकाश६ और तत्त्वार्थसूत्र७७ में भी यही कहा है।
__'सर्वार्थसिद्धिकार' ने इस निद्रा की तीन परिभाषाएँ प्रतिपादित की हैं- १) जिस निद्रा के उदय से निद्रित अवस्था में विशेष बल प्रकट हो जाये। २) जिसके उदय से आत्मा सुप्त अवस्था में रौद्र कर्म करता है। ३) जिस निद्रा में दिन में चिन्तित अर्थ और आकांक्षा का एकीकरण हो जाये, उसे स्त्यानगृद्धि निद्रा कहते हैं।
तीव्र लोभ और उग्र क्रोध इस निद्रा में निमित्त बनते हैं, इसलिए सोने से पूर्व मनुष्य को अपने क्रोध को उपशान्त करके सोना चाहिए। मनोविकारों को उपशांत करने के लिए और सद्विचारों में सोने के लिए ज्ञानियों ने सागारी संथारा ग्रहण करना चाहिए।
पाँच प्रकार की निद्रा का हेतु मुख्य रूप से प्रमाद को बताया है। प्रमाद के कारण दर्शनावरणीय कर्म बंधता है। अति अल्प प्रमाद से निद्रा, अल्प प्रमाद से निद्रा-निद्रा, ज्यादा प्रमाद से प्रचला, अति प्रमाद से प्रचला-प्रचला, तीव्र प्रमाद से स्त्यानर्द्धि निद्रा से