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१) कालवाद, ४) कर्मवाद, और
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२) स्वभाववाद, ५) पुरुषार्थवाद | ५६
३) नियतिवाद,
श्वेताश्वतर उपनिषद् में जिन ६ कारणवादों का उल्लेख है, उनमें कर्मवाद तथा पुरुषार्थवाद को बिल्कुल स्थान नहीं दिया है उसका कारण यह है कि उपनिषदकाल से पूर्व तक वैदिक परंपरा के मनीषी विश्व वैविध्य एवं वैचित्र्य का कारण अंतरात्मा में ढूंढने की अपेक्षा बाह्य पदार्थों में ही मानकर संतुष्ट हो गये थे । यही कारण है कि उपनिषदकाल में सर्वप्रथम श्वेताश्वतर उपनिषद् में विश्ववैचित्र्य के छह निमित्त कारणों का उल्लेख मिलता है । ५७ संभव है, इसमें कर्मवाद एवं पुरुषार्थवाद का आत्मा से सीधा संबंध होने से उनकी दृष्टि में ये दोनों वाद न आये हों। इससे यह भी सूचित होता है कि तब तक उपनिषद् मनीषी ऋषिगण कर्मवाद और पुरुषार्थवाद से भलीभाँति परिचित नहीं हुए होंगे। पश्चात्वर्ती मनीषियों ने एवं दार्शनिकों ने अवश्य ही इन दोनों को किसी न किसी रूप में अपनाया है।
प्रत्येक कार्य में पांच कारणों का समवाय और समन्वय
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जिस प्रकार वैदिक मनीषियों ने वैदिक परंपरा सम्मत यज्ञकर्म और देवाधिदेव के साथ अपनी दृष्टि से कर्म का समन्वय किया, उसी प्रकार जैन मनीषियों ने दार्शनिक युग कालादि कारणों की गहराई से समीक्षा करके पूर्वोक्त पांच कारणवादों को सृष्टि वैचित्र्य के कारणों को उपयुक्त समझा और उनमें यथोचित अंशों को अपनाकर कर्म के साथ उनका समन्वय किया ।
पश्चाद्वर्ती जैन दार्शनिक आचार्यों ने इस सिद्धांत का निरूपण किया कि किसी भी कार्य की उत्पत्ति केवल एक ही कारण पर निर्भर नहीं है, अपितु वह पांच कारणों के (कारण साकल्य) पर निर्भर है । काल, स्वभाव, नियति, कर्म, (स्वयं द्वारा स्वकृत कर्म) और पुरुषार्थ पांच कारण हैं। इन्हीं पांचों को जैन दार्शनिकों ने पंच कारण समवाय कहा है। ये पांचों सापेक्ष हैं। इनमें किसी भी एक को कारण मान लेने से कार्य निष्पत्ति नहीं हो सकती। आचार्य सिद्धसेन दिवाकर ने कहा है कि काल, स्वभाव, नियति, पूर्वकृत कर्म, और पुरुषार्थ इन पाँचों कारणों में से किसी एक को ही कारण माना जाये और शेष कारणों की उपेक्षा की जाये यह मिथ्या धारणा है । सम्यक् धारणा यह है कि कार्य के निष्पन्न होने में ' काल आदि सभी कारणों का समन्वय किया जाये । ५८
आचार्य हरिभद्र ने भी शास्त्रवार्तासमुच्चय में एकांत कारणवादों की समीक्षा करते हुए कहा है कि 'न्यायवादियों को यह समझ लेना चाहिए कि जिस प्रकार गर्भाधानादि कार्यों के