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अत: आत्मा के अस्तित्व को तथा उससे संबंध तत्त्वों को समझना आवश्यक है। आध्यात्मिक विकास और हास को समझने के लिए आत्मा के साथ-साथ कर्म को भी समझना जरूरी है। कर्म के अस्तित्व को जानना, मानना और विश्वास करना तथा अंत में कर्म के जाल से सर्वथा मुक्ति पाना। तभी तो आध्यात्मिक पूर्णता के शिखर पर आत्मा पहुँच सकती है। कर्म का अस्तित्व कब से? कब तक?
जिन मनीषियों ने कर्म विज्ञान के महासागर में गोते लगाए उनके सामने यह प्रश्न आया कि कर्म का अस्तित्व कब से है और कब तक रहेगा? इसका सीधा और सरल समाधान उन्होंने यह दिया कि जब से जीव (आत्मा) संसारी हुआ और जब तक वह संसारी (बद्ध) रहेगा तब से तब तक कर्म का अस्तित्व है। दोनों का संबंध अनादि क्यों? कैसे?
प्रश्न यह है कि जीव संसारदशा को क्यों प्राप्त होता है, जब कि रागद्वेष के बिना कर्मबंध नहीं हो सकता और कर्मबंध हुए बिना राग-द्वेष नहीं हो सकता। ऐसी स्थिति में जीव की यह (संसारी) अवस्था कैसे और कब से हुई? इसका समाधान जैन कर्म मर्मज्ञों ने यह दिया कि संसार की यह चक्र परंपरा अनादि काल से बीज-वृक्ष के समान चली आ रही है। बीज से वृक्ष होता है, वृक्ष से बीज, इन दोनों में से किसका प्रारंभ सर्वप्रथम हुआ, यह कोई नहीं कह सकता। इसी प्रकार कर्म और जीव (संसारी जीव) की परंपरा अनादि है अर्थात् जीव के संसार के कारण भूत राग-द्वेष और कर्मबंध की परंपरा को अनादि कालीन समझना चाहिए। तात्विक दृष्टि से कर्म और जीव का सादि और अनादि संबंध
इस तात्विक दृष्टि से समझना चाहे तो इस प्रकार समझ सकते हैं - जीव की मानसिक, वाचिक और कायिक शुभाशुभ प्रवृत्ति (क्रिया या व्यापार) जब से शुरु हुई है अथवा जब से कषायादि का संयोग हुआ है तब से कर्म आत्मा को लगे हैं और तब तक लगे रहेंगे जब तक जीव के योग (मन, वचन और काया की प्रवृत्ति) और कषाय (क्रोधादि तथा राग-द्वेष मोहादि) रहेगें। अत: अनेकांतवाद की भाषा में इस प्रकार कहा जा सकता है। एक जीव की अपेक्षा से कर्म का अस्तित्व सादि (प्रारंभयुक्त) सिद्ध होता है, जब कि जगत् के समग्र जीवों की अपेक्षा से कर्म प्रवाह रूप से अनादि है। आत्मा अनादि है तो क्या कर्म भी अनादि हैं ?
भारतीय आस्तिक दर्शनों की दृष्टि में आत्मा अनादि है। वह अजर, अमर, अविनाशी, नित्य और शाश्वत तत्त्व है। भगवद्गीता और स्थानांगसूत्र में स्पष्ट कहा गया है- 'यह